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जैन कथा कोष ३२५ से मरने से तो अपघात करके मरना अच्छा है।' यों सोचकर अपनी हीरे की अंगूठी निगल ली। उस कालकूट विष के प्रयोग से उसके प्राण क्षणमात्र में ही निकल गये। __एक बार महाराज श्रेणिक ने हरिणी का शिकार करते समय एक बाण से हरिणी और उसके गर्भस्थ शिशु को बींधकर बाण भूमि में रोप दिया था। उसी के फलस्वरूप उसे नरकायु का बन्ध हुआ और उसे प्रथम नरक में जाना पड़ा। जैन शासन की अखण्ड भक्ति के कारण उसने तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया था। इससे अगली चौबीसी में 'पद्य' नाम का प्रथम तीर्थंकर होगा। भगवान् महावीर के समान ही ७२ वर्ष की आयु तथा सारी ऋद्धि आदि भी वैसी ही होगी।
-ठाणांग वृत्ति ४/३
-आवश्यक कथा
१६१. श्रेयांसकुमार 'आदिनाथ' भगवान् के पुत्र का नाम था 'सोमप्रभ'। 'सोमप्रभ' हस्तिनापुर का राजा था। उसके पुत्र का नाम था 'श्रेयांसकुमार'।
'आदिनाथ' प्रभु संयम लेकर विहार कर रहे थे। उस समय लोग साधुओं की भिक्षा-विधि से परिचित नहीं थे। इसलिए प्रभु को एक वर्ष तक आहारपानी का सुयोग नहीं मिला। इससे पहले न तो किसी ने भिक्षा मांगी ही थी
और न ही किसी ने भिक्षा दी थी। आहार न मिलने से चार हजार साधु जो साथ में दीक्षित हुए थे, उनमें से अनेक भूख-प्यास से हाल-बेहाल होकर संयमपथ को छोड़कर कंदमूल-फलाहारी बन गये। प्रभु भिक्षा के लिए जाते, अन्यान्य कई चीजें प्रभु को लोग देना चाहते, परन्तु प्रासुक आहार देना किसी को भी याद न आता। बारह महीने के भूखे-प्यासे प्रभु 'हस्तिनापुर' पधारे। __ संयोग की बात, उसी रात में श्रेयांसकुमार ने स्वप्न देखा—'मानो काले पड़ते हुए मेरु पर्वत को वह अपने हाथों से 'अमृत घट' से सींच रहा है।'
उसी रात नगर के एक सुबुद्धि नामक सेठ ने स्वप्न देखा-'हजारों किरणों से रहित होते सूर्य को श्रेयांसकुमार अपने हाथ से किरणों से संयुक्त बना रहा
उसी रात महाराज सोमप्रभ ने स्वप्न में देखा—'एक दिव्य पुरुष द्वारा शत्रुओं