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जैन कथा कोष ३२६ भगवान्—'क्यों, ऐसा क्यों करोगे? तुम्हारा सिद्धान्त तो यह है कि जो होना है, वह होकर रहता है। सारी स्थितियाँ नियत हैं, तब उसका क्या अपराध है? उसे दण्ड क्यों दोगे?'
अब सकडालपुत्र के सामने नियतिवाद की अनुपयोगिता तथा तर्कहीनता स्पष्ट नजर आ गई थी। भगवान् महावीर की बात को सत्य मानकर सही तत्त्व को स्वीकार कर लिया। भगवान् महावीर के पास श्रावक के बारह व्रतों के नियम भी लिये। __ जब गोशालक को सकडालपुत्र के धर्म-परिवर्तन का पता लगा तो चिन्तित हो उठा। सोचा-पोलासपुर का तो मेरा स्तम्भ ही ढह गया। उसे समझाने के लिए वह पोलासपुर चला आया। गोशालक जब सकडालपुत्र के पास पहुँचा, तब वह उसे देखा-अनदेखा करके भी धर्मध्यान में लीन बना बैठा रहा। गोशालक ने उसे दृढ़ श्रद्धालु समझकर फोड़ना चाहा। भेदनीति को अपनाते हुए, भगवान् महावीर के गुणानुवाद मुक्त कण्ठ से किये। यहाँ तक भी कहा—'जो देव का संकेत जिन, महान् गोप, देवाधिदेव, महामाहन आदि था वह उसके लिए ही था।'
गोशालक के मुँह से महावीर के गुणानुवाद सुनकर सकडालपुत्र ने गोशालक को प्रभु से शास्त्रार्थ करने के लिए कहा। गोशालक ने भगवान् महावीर से शास्त्रार्थ करने में अपने-आपको असमर्थ बताया।
सकडालपुत्र ने गोशालक को स्पष्ट कहा—'आप मेरे धर्माचार्य, धर्मगुरु भगवान् महावीर के गुणानुवाद करते हैं। मैं अपनी कुंभकारापण में शय्या संस्तारक के लिए आपको आमन्त्रित करता हूँ। आप आइये और वहाँ रहिये। अन्य कोई प्रयोजन नहीं है।'
गोशालक वहाँ आकर ठहर गया। उसे अपनी ओर खींचने का काफी प्रयत्न किया, पर सफल न हो सका।
सकडालपुत्र श्रावकधर्म में विशेष लीन रहने लगा। एकदा वह पौषधशाला में बैठा था। उस समय रौद्र रूप बनाकर एक दैत्य हाथ में तीक्ष्ण तलवार लिये उसे चलित करने आया और बोला-'तू यदि धर्म नहीं छोड़ता है तो तेरे बड़े पुत्र को तेरे सामने लाकर उसके शरीर के नौ टुकड़े करूंगा। तेल की कड़ाही में उसके मांस के सूले पकाऊँगा। उस रक्त-मिश्रित तेल से तेरा शरीर सींचूंगा। तू उस असह्य पीड़ा से प्राण छोड़ देगा।'