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२६० जैन कथा कोष
पार के लिए भिक्षा ह्वेत निकले और अनायास ही एक सुनार के यहाँ पहुँच गए। सुनार उस समय राजा के आदेश से सोने के यव बना रहा था। मुनि को देखने ही उस सुनार ने अपने भाग्य को सराहा और काम ज्यों का त्यों छोड़कर भिक्षा लेने चला आया ।
इतने में एक क्रौंच पक्षी वहाँ आया और सोने के यवों को असली यव समझकर निगल गया । सुनार भिक्षा लेकर आया तो सोने के यव गायब थे । उसने मुनिश्री से पूछा । मुनिश्री ने मन में सोचा - यदि मैं सच बोलता हूँ, तो यह सुनार पक्षी को मार देगा और प्राणिवध का निमित्त बन जाऊँगा। यदि सावद्य वचन बोलूं तो मेरा सत्य महाव्रत भंग हो जाएगा। दोनों तरह से पाप लगेगा। यह सोचकर मुनिश्री मौन हो गए। उन्होंने कुछ भी न कहा ।
सुनार ने बार-बार मुनि मेतार्य मुनि से यवों के बारे में पूछा। लेकिन जब उसे कोई उत्तर न मिला तो वह क्रोधित हो उठा। उसने समझ लिया कि इस ढोंगी मुनि ने ही स्वर्ण व चुराये हैं। क्रोध में बेभान होकर उसने मुनि को पकड़ा और उनके मस्तक पर गीले चमड़े की पट्टी बाँधकर घर के आंगन
धूप में खड़ा कर दिया। धूप के कारण ज्यों-ज्यों गीला चमड़ा सूखा, उसका कसाव बढ़ता गया। मुनि को असह्य वेदना हुई। फिर भी वे समताभाव में लीन रहें। परिणामस्वरूप उनके समस्त कर्मों का क्षय हो गया । देह त्यागकर वे सिद्धशिला में जा विराजे ।
उसी समय एक लकड़हारा सुनार के घर आया । उसने लकड़ियों का गट्ठर जोर से जमीन पर पटका । गट्ठर गिरने की आवाज से भयभीत होकर क्रौंच ने विष्ठा कर दी। स्वर्ण यव निकल आये। उन्हें देखकर स्वर्णकार चकित-भयभीत हो उठा। जाकर मुनि को देखा तो उनका शव ही वहाँ था । स्वर्णकार को बहुत पश्चात्ताप हुआ। वह श्रमण भगवान महावीर की शरण में पहुँचा और निष्कपट हृदय से अपने घोर पाप की आलोचना गर्हणा की । प्रायश्चित करके शुद्ध हुआ और पंचमहाव्रत धारण कर सद्गति प्राप्त की । - आख्यानक मणिकोष, ४१/१२६ — उपदेशमाला ( धर्मदास गणि), पृ. २६७
१६४. मौर्यपुत्र गणधर
भगवान् महावीर के सातवें गणधर थे 'मौर्यपुत्र' । ये काश्यप गोत्रीय 'मौर्य' गाँव