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जैन कथा कोष ३१५
नाम 'भद्रा' तथा पुत्री का नाम 'सुभद्रा' था। सुभद्रा का विवाह धन्यकुमार के साथ सेठ ने यह मानकर कर दिया कि धन्यकुमार के योग से मैं काने के कुचक्र से बच सका। धन्य न होता तो मेरी इज्जत, धन और प्रतिभा सारी ही यह काना मिट्टी में मिला देता।
'सुभ्रद्रा' के पतिगृह चले जाने पर घर सूना-सूना लगने लगा। भद्रा को सान्त्वना देते हुए सेठ ने मन में यह संकल्प लिया कि यदि मेरे पुत्र हो जाएगा तो मैं उसे घर का भार सौंपकर संयमी बन जाऊँगा। संयोग की बात, भद्रा गर्भवती हुई। उसने शालि के खेत का स्वप्न देखा। यथासमय पुत्र हुआ। पुत्र का नाम 'शालिभद्र' रखा । गोभद्र संयमी बन गया। भद्रा ने पुत्र का लालन-पालन किया। कुमार ७२ कलाओं में पारंगत हुआ। युवावस्था में ३२ कन्याओं के साथ कुमार का विवाह हुआ।
गोभद्र मुनि संयम का पालन करके देव बने । देव बनने पर भी उनका शालिभद्र पर विशेष अनुराग था। पितृ देव के योग से शालिभद्र के यहाँ दिव्य ऋद्धि रहने लगी। देव प्रतिदिन तैंतीस पेटियाँ स्वर्गलोक से शालिभद्र के यहाँ पहुँचाता। प्रत्येक पेटी में तीन-तीन विभाग होते-एक में जेवर, एक में वस्त्र, एक में भोजन-सामग्री। बत्तीस पेटियाँ बत्तीस पुत्रवधुओं के लिये तथा एक शालिभद्र के लिए। जो वस्त्राभूषण एक दिन काम में लिये जाते, वे अगले दिन फेंक दिए जाते । यों असाधारण, अद्वितीय ऋद्धि का उपभोग शालिभद्र कर रहा था। रहने के लिए महल भी सात मंजिले थे। शालिभद्र घरेलू कामकाज से भी बिल्कुल अनभिज्ञ रहता, वह भी सारा भद्रा निपटाती। ___एक दिन नेपाल के कुछ व्यापारी सोलह रत्नकम्बलें लेकर राजगृही आये। वे चाहते थे—सभी कम्बलें एक साथ ही बिकें। एक ही सिक्के के सोनये मिलें । बहुत बड़ी आशा दिल में लिये महाराज श्रेणिक के पास गये। महाराज श्रेणिक ने यह कहकर व्यापारियों को लौटा दिया कि इतनी विशाल राशि राज्य भण्डार से मैं अपने मौज-शौक के लिए व्यय नहीं करना चाहता।
व्यापारी अपना मुँह लटकाये निराश होकर जा रहे थे। भद्रा की दासियों ने उनसे सेठानी का परिचय कराया। भद्रा ने अफसोस करते हुए कहा—'बत्तीस कम्बलें होतीं तो अच्छा रहता। सभी बहुओं के हिस्से में एक-एक आ जाती। अब इन सबके दो-दो टुकड़े कर दो।' यो बत्तीस टुकड़े करवाकर सारी कम्बलें