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३०४ जैन कथा कोष जाते हुए रोक सकेगा? इसलिए अच्छा होगा मैं अपनी चार पुत्रवधुओं की परीक्षा करके देख लूं—इनमें कौन बुद्धिमती है। मैं बुद्धिमान उसे समझूगा जो सम्पत्ति को बढ़ाने वाली हो। यह भी केवल चावल के पाँच अखंड दाने देकर मुझे देखना है इनमें से उन दानों की कौन वृद्धि करता है, कौन रक्षा करता है तथा कौन नष्ट करता है?..." - यही सोचकर सारे मित्र, ज्ञातिजनों के लिए भोज का व्यवस्था की। पुत्रवधुओं के परिवारवालों को भी बुला लिया गया। सबके सामने चारों को चावल के पाँच-पाँच दाने देकर कहा- जब मैं माँगू, तब मुझे ये दाने वापस लौटा देना।
सबसे बड़ी बहू 'उज्झिता' ने सोचा-इतना आडम्बर करके श्वसुरजी ने ये दाने दिये। वह भी यह कहकर कि जब मैं माँगू तब मुझे वापस देना है। इनमें भी क्या खास बात है। हमारे घर में चावलों के भण्डार भरे हैं। श्वसुरजी जब भी माँगेंगे, उनमें से पाँच दाने लाकर दे दूंगी। ऐसा विचार कर उसने उन दोनों को एक ओर फेंक दिया।
दूसरी भोगवती ने सोचा–ससुरजी ने इतने ठाट-बाट से दिए हैं। हो न हो, इनमें कोई दिव्य शक्ति है। अतः उन्हें तो खा लूं। मांगेंगे तो घर में से लाकर दे दूंगी।
तीसरी रक्षिता ने सोचा–ससुरजी के दिये हुए हैं। वापस उन्हें लौटाना पड़ेगा। अतः इन्हें सुरक्षित रखना चाहिए। यों सोचकर एक सुन्दर कपड़े के छोर में बाँधकर उसने चावल के पाँचों दाने अपनी आभूषणों की पेटी में रख
दिये।
___ चौथी रोहिणी ने सोचा-इन्हें ऐसे बाँधकर रखने में क्या लाभ है? इन्हें बढ़ाना चाहिए। ऐसा विचार कर दानों से अपने पीहर में खेती करवा दी। पाँचों दानों से बढ़ते-बढ़ते कई मन धान हो गया।
पाँच वर्ष के बाद सार्थवाह ने पहले की तरह सभी स्वजन-परिजनों को एकत्रित करके भोज की व्यवस्था की। सबको प्रीति-भोज देकर चारों बहुओं से वे दाने माँगे । उज्झिता ने पाँच दाने लाकर दे दिए। पूछने पर उसने सच्ची बात बताते हुए कहा—'वे तो मैंने उसी समय फेंक दिये थे।' भोगवती ने कहा—'मैंने खा लिये।' रक्षिता ने जेवर की पेटी में से वे दाने सेठ के हाथ में लाकर थमा दिये। रोहिणी ने अपने पीहर से कई गाड़ियों में लदा धान