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जैन कथा कोष
अपनी मित्रता का पूरा-पूरा निर्वाह किया। संयम लेते ही प्रभु को मनः पर्यवज्ञान हुआ और फिर केवलज्ञान हुआ ।' केवलपर्याय का पालन किया। मोक्ष में विराजमान हुए ।
ये उन्नीसवें तीर्थंकर थे ।
गणधर
केवली साधु
केवली साध्वी
मनः पर्यवज्ञानी
साधु
साध्वी
- धर्म-परिवार
२८
३२००
६४००
अवधिज्ञानी
पूर्वधर
२२००
६६८
१४००
२८००
१,८३,०००
३,७०,०००
— ज्ञाताधर्म कथा, ८
- त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र
वादलब्धिधारी
वैक्रियलब्धिधारी
१७५०
80,000 श्रावक
५५,०००
श्राविका
१५४. महापद्म (चक्रवर्ती)
'हस्तिनापुर' नगर के महाराज 'पद्मोत्तर' के दो पुत्र थे— 'विष्णुकुमार' और 'महापद्म'। 'विष्णुकुमार' ने अपने पिता 'पद्मोत्तर' के साथ ही दीक्षा ले ली। 'महापद्म' आगे चलकर नौवां चक्रवर्ती बना और छः खण्ड की साधना की।
शासन का संचालन सांगोपांग चल रहा था। उस समय एक विचित्र घटना घटी। बात यों बनी — चक्रवर्ती 'महापद्म' के 'नमुचि' नाम का प्रधान था । 'नमुचि' चक्रवर्ती का कृपापात्र तथा पूर्ण विश्वासपात्र था, परन्तु था जैनधर्म का कट्टर दुश्मन | जैनधर्म के प्रति उसके दिल में द्वेष भावना भड़कने का एक कारण था। वह यह था— पहले नमुचि 'उज्जयिनी' नगरी में रहता था । वहाँ
१. आवश्यक भाष्य, गा. २६१ और टीका में छद्मस्थकाल अहोरोत्रि लिखा है, ऐसा ही उल्लेख जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ६, पृष्ठ १८५ पर भी है; लेकिन ज्ञातासूत्र में एक प्रहर लिखा है ।
२. त्रिषष्टि में यह संख्या इस प्रकार है— पूर्वधर ३३८, अवधिज्ञान २२००, मनः
पर्यवज्ञानी १७५०, केवलज्ञानी २२००, वैक्रियलब्धिधारी २६००, वादलब्धिधारी १४००,
श्रावक १८३००० और श्राविकाएं ३७०००० थीं ।