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जैन कथा कोष २५५ प्रिय पुत्री के हठ से विवश होकर राजा ने कर्मरेख को फांसी की सजा दे दी। लेकिन बधिक जब उसे वधस्थल पर ले गया तो उसके मन में विचार आया—निरपराध बालक को मारना उचित नहीं है। उसने उसे छोड़ दिया और राजा को आकर बता दिया कि कर्मरेख समाप्त हो चुका है।
कर्मरेख वहाँ से चला गया। चलते-चलते वह श्रीपुर नगर के बाहरी भाग में आकर सो गया। ___ श्रीपुर नगर में श्रीदत्त नाम का एक श्रेष्ठी रहता था। उसकी श्रीमती नाम की एक पुत्री थी। उस सेठ को रात्रि में उसकी कुलदेवी ने दर्शन देकर कहा—इस गाँव के बाहर प्रात:काल के समय सोते हुए जिस युवक के पास तुम्हारी काली गाय खड़ी हो, उसी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर देना।
कुलदेवी के निर्देशानुसार श्रीदत्त सेठ गया तो उसे कर्मरेख मिल गया। उसने उसी के साथ अपनी पुत्री श्रीमती का विवाह कर दिया । यहाँ कर्मरेख ने अपना असली नाम छिपाकर रत्नचन्द्र नाम बताया।
एक बार अपने श्वसुर श्रीदत्त की आज्ञा लेकर कर्मरेख समुद्र-मार्ग से व्यापार करने लगा। परदेश में उसने बहुत धन कमाया, लेकिन वापस लौटते समय उसका वाहन भंग हो गया। वह समुद्र में गिर गया। समुद्र में उसे एक मत्स्य निगल गया। वह मत्स्य समुद्र के किनारे आकर लेट गया। वहाँ उसे मछुओं ने पकड़ लिया। चीरने पर कर्मरेख जीवित निकल गया। उन मछुओं ने उसे भृगुपुर (भड़ौंच) के राजा को भेंट कर दिया। राजा के कोई पुत्र न था। अतः उसने उसे अपना पुत्र मान लिया और कुंडनपुर के राजा की पुत्री के साथ उसका विवाह भी कर दिया।
इधर राजा रिपुदमन ने भी अपनी पुत्री भाविनी का स्वयंवर किया। स्वयंवर में कर्मरेख भी आया। भाविनी ने उसी के गले में वरमाला डाल दी। दोनों का विवाह हो गया। ___ एक दिन कर्मरेख स्वर्णथाल में भोजन कर रहा था। भाविनी पंखा झल रही थी। उसी समय बड़े जोर की आंधी चलने लगी। भोजन में धूल न गिर जाए, इसलिए भाविनी ने अपने वस्त्र की ओट कर दी। यह देखकर कर्मरेख को पुरानी स्मृति हो आयी और वह मुस्करा उठा। __इस मुसकराहट का रहस्य जब भाविनी ने अत्याग्रह करके पूछा तो कर्मरेख ने सब कुछ स्पष्ट बता दिया। भाविनी लज्जा और संकोच से गड़ गई। उसे