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२५४ जैन कथा कोष की भांति अविचल खड़े हो गये। शरीर कृश हो गया। पक्षियों ने वहाँ अपने घोंसले बना लिये। बारह महीने व्यतीत हो गये। ___ भगवान् 'आदिनाथ' ने जब यह सब कुछ देखा तब 'ब्राह्मी' और 'सुन्दरी' को वहाँ उपदेश देने भेजा। दोनों भगिनियों ने मृदु स्वर से प्रबुद्ध करते हुए कहा-'बन्धुवर ! आप इस अहंकार के गजराज पर सवार हैं। उससे नीचे उतरिये। वहाँ चढ़े-चढ़े केवलज्ञान नहीं होगा।'
'बाहुबली' चौंके । अपनी भूल का भान हुआ। अपने लघु बांधवों को वन्दनार्थ जाने की भावना की। तत्क्षण केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
महाराज 'भरत' चक्रवर्ती बनकर बहुत लम्बे समय तक न्याय-नीतिपूर्वक राज्य का संचालन करते रहे । एक दिन वस्त्राभूषणों में सुसज्जित होकर अपने रूप को देखने शीशमहल में गये। अपने वैभव पर, अप्रतिम सौन्दर्य पर फूले नहीं समा रहे थे। इतने में सहसा एक अंगुली की ओर ध्यान गया। अंगुली सुन्दर नहीं लग रही थी। कारण की खोज करने पर ध्यान आया, इनमें अंगूठी पहननी ही भूल गया। तत्क्षण चिन्तन बदला। सोचा, यह सारी शोभा-सुन्दरता बाह्य सामग्री से है। मैं भी कैसा बेभान रहा। बाह्य सामग्री में ही मुग्ध बना रहा।
यों चिन्तन करते-करते उस शीशमहल में ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। देवताओं ने साधु वेश दिया। निर्वाण प्राप्त किया।
-त्रिपष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १/६
१४६. भाविनी-कर्मरेख मनोरमपुर के राजा रिपुमर्दन के कोई पुत्र न था, सिर्फ 'भाविनी' नाम की एक पुत्री थी। वह राजा को प्राणों के समान प्रिय थी। बाल्यावस्था में वह एक कलाचार्य के पास विद्या पढ़ती थी।
इसी नगर में धनदत्त नाम का एक निर्धन श्रेष्ठी रहता था। उसका 'कमरेख' नाम का पुत्र भी इसी कलाचार्य के पास पढ़ता था।
एक बार कुतूहलवश भाविनी ने गुरु से पूछा-मेरा पति कौन होगा? गुरु ने ग्रह आदि देखकर बताया—यह कर्मरेख ही तुम्हारा पति होगा।
यह सुनते ही भाविनी को बड़ा रोष आया। वह कोपभवन में जा लेटी। राजा के पूछने पर भाविनी ने सब कुछ स्पष्ट बताकर कहा—मैं ऐसे निर्धन के साथ कभी विवाह न करूंगी। ऐसा उपाय होना चाहिए कि यह कर्मरेख रहे ही नहीं।