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२४८ जैन कथा कोष
‘बृहस्पतिदत्त' । जब ‘बृहस्पतिदत्त' युवा हुआ तब वहाँ के युवराज 'उदायन' से इसकी मित्रता हो गई। कौशाम्बीपति शतानीक की मृत्यु के बाद जब युवराज 'उदायन' शास्ता बना तब 'उदायन' ने 'बृहस्पतिदत्त' को अपना पुरोहित बनाया ।
दुष्ट व्यक्ति को मिली सफलता उसका सत्यानाश करने के लिए हुआ करती है। 'बृहस्पति' के साथ भी यही हुआ । यह बिना रोक-टोक अन्त: पुर में जाता। वहाँ 'उदायन' की महारानी 'पद्मावती' के साथ इसका अनुचित सम्बन्ध हो गया। एक दिन महाराज 'उदायन' ने बृहस्पतिदत्त को रंगे हाथों पकड़ लिया। फिर तो कुपित होना ही था । राजा कब किस के मित्र होते हैं? फिर ऐसे अत्याचारी को छूट मिले भी कैसे ? तत्क्षण आदेश देकर 'बृहस्पतिदत्त' को शूली पर लटकवा दिया। शूली पर छटपटाता रहा । पर· उपाय क्या? किये हुए कर्मों का फल बिना भोगे छुटकारा कहाँ ? वहाँ वह दुर्ध्यान में भरकर प्रथम नरक में गया। आगे अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा ।
- विपाकसूत्र, ५
१४३. बंकचल
राजा विमल के पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला था। योग्य वय होने पर पुष्पचूला का विवाह हो गया, लेकिन पति की मृत्यु होने के कारण वह अपने पिता के घर ही आ गई और वहीं रहने लगी ।
पुष्पचूल राजकुमार होने पर भी व्यसनी था, चोरी की कला में अत्यन्त निपुण था । इसलिए उसका नाम बंकचूल पड़ गया। उसकी बहन पुष्पचूला उसके इन कार्यों को प्रोत्साहन देती थी । इस कारण उसका नाम भी बंकचूला पड़ गया।
बंकचूल के निन्द्य कार्यों से जनता परेशान हो गयी तो राजा विमल से शिकायत की। राजा विमल ने दोनों भाई-बहनों को देश से निकाल दिया । बंकचूल अपनी बहन बंकचूला को साथ लेकर एक भीलपल्ली में पहुँच गया। इस पल्ली का सरदार वृद्ध हो चुका था । उसने अपना सारा उत्तरदायित्व कचूल को सौंप दिया ।
एक बार आचार्य चन्द्रयश अपने शिष्यों सहित एक सार्थ के साथ विहार कर रहे थे । साधुगण भिक्षा के लिए गये तब तक सार्थ आगे बढ़ गया । वर्षा ऋतु सिर पर थी । आचार्य बड़े पशोपेश में पड़े । उचित स्थान की गवेषणा