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जैन कथा कोष २४७ का विवाह 'राष्ट्रकूट' नाम के एक ब्राह्मण के साथ होगा। वहाँ 'सोमा' सोलह वर्ष में बत्तीस पुत्रों को जन्म देगी। इतने सारे बालकों की सार-सँभाल करती हुई ‘सोमा' पूरी तरह से घबरा जाएगी। ऐसे जीवन से मृत्यु को अच्छा मानेगी। मन-ही-मन सोचेगी कि जो स्त्रियाँ बन्ध्या हैं, वे ही धन्य हैं। यों जीवन से पूर्णतया ऊब जाएगी। इस अज्ञानी प्राणी की यही मनोदशा रही है—अभाव में लेने को छटपटाता है और प्राप्त होने पर ठुकराने को। सुख न अभाव में है, न अतिभाव में; यह है समभाव में। वह यह रख नहीं पाता | बस झंझट यही
उस समय कोई 'सुव्रता' नाम की साध्वी के पास 'सोमा' संयम स्वीकार करेगी। अनेक वर्ष तक संयम का परिपालन करके एक मास का अनशनपूर्वक समाधिमरण प्राप्त करेगी। शक्रेन्द्र के यहाँ सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। वहाँ से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करेगी।
-निरयावलिका, वर्ग ३, अ. ४
१४२. बृहस्पतिदत्त 'सर्वभद्र' नगर के राजा का नाम 'जितशत्रु' था। उसके 'महेश्वरदत्त' नाम का एक पुरोहित था। 'महेश्वरदत्त' वैसे था तो वैदिक शास्त्रों में पारंगत तथा कर्मकाण्डी; पर था क्रूर, हिंसा-प्रेमी और निघृण । राज्यवृद्धि-हेतु पुरोहित पुन:पुनः यज्ञ कराता रहता। यज्ञ में मनुष्यों की बलि आँख मूंदकर देता था। यज्ञ क्या था, नर-संहार करने का एक कुत्सित उपक्रम ही था, जिसकी विधि सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्गों के जीवित बालकों का माँस निकालकर यज्ञ में आहुति देता। अष्टमी और चतुर्दशी को चारों ही वर्गों के दो-दो बालक-आठ बालकों की आहुति दी जाती। चौथे महीने सोलह बालकों का, छठे महीने बत्तीस बालकों का तथा वर्ष की समाप्ति पर चौंसठ बालकों का होम होता । यदा-कदा शत्रु का आक्रमण हो जाता तो उसकी शान्ति के लिए चार सौ बत्तीस बालकों का होम करने के बहाने उनके प्राणों का हत्यारा बन जाता। यों यह महेश्वरदत्त प्रचुर पापों का उपार्जन अनेक वर्षों तक करता रहा तथा मरकर पाँचवीं नरक में गया । पाँचवीं नरक से निकलकर 'कौशाम्बी'-नगरी में 'सोमदत्त' पुरोहित के यहाँ पुत्र रूप में पैदा हुआ। इसकी माता का नाम 'वसुदत्ता' था और इसका नाम था