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जैन कथा कोष २३३
यथासमय दोनों के ही एक-एक पुत्र हुआ— पहले 'रुक्मिणी' के और पीछे 'सत्यभामा' के । 'रुक्मिणी' के पुत्र का नाम 'प्रद्युम्न' रखा गया तथा भामा के पुत्र का नाम 'भानुकुमार' ।
'प्रद्युम्नकुमार' कुछ ही दिन का हुआ था । श्रीकृष्ण अपने हाथ में लिये उसे सहला रहे थे। ‘रुक्मिणी' स्नानघर में थी । इतने में 'प्रद्युम्न' के पूर्वजन्म का वैरी धूमकेतु नाम का देव अपना प्रतिशोध लेने के लिए 'रुक्मिणी' का वेश बनाकर वहाँ आया। श्रीकृष्ण के हाथ से शिशु को लेकर चला गया । वह उसे. मारकर अपना बदला लेना चाहता था, पर 'प्रद्युम्न' चरमशरीरी ( इसी जन्म में मुक्त होने वाला) था। आयुष्य पूरा था। किसी के मारने पर भी नहीं मर सकता था । इसलिए उस देव की भावना बदली और वहीं जंगल में उसे एक शिला पर छोड़कर चला गया। सोचा, यहाँ अपने आप तड़प-तड़पकर मर जाएगा।
उस समय 'मेघकूट' नगर का स्वामी 'मेघसंवर" नाम का विद्याधर विमान में बैठकर कहीं जा रहा था। उस शिशु को वहाँ वन में अकेला देखकर अपने विमान में लेकर चला गया। अपनी महारानी 'कनकमाला' को पुत्र कहकर सौंप दिया । 'कनकमाला' के भी कोई पुत्र न होने से, उसका अपने पुत्र की भांति पालन-पोषण किया ।
इधर 'रुक्मिणी' ने स्नानघर से बाहर आकर श्रीकृष्ण से शिशु माँगा । श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा - ' तूने मुझे 'भामा' समझ रखा है क्या, जो मेरे साथ भी आँख मिचौनी खेल रही है। अभी-अभी तो तू मेरे पास से पुत्र को ले गई थी। लगता है उसे तू कहीं छिपाकर फिर आ गई।' 'रुक्मिणी' श्रीकृष्ण की बात सुनकर सन्न रह गई और बोली- 'नाथ ! यह आप क्या कह रहे हो? कौन ले गई थी? मैं तो अभी-अभी स्नानघर से आपके सामने ही बाहर निकलकर आयी हूँ।' 'रुक्मिणी' की निश्छल बात सुनकर श्रीकृष्ण ने सोचा, हो न हो मेरे साथ धोखा हुआ है। 'रुक्मिणी' विलाप करने लगी। चारों ओर शोक छा गया। सभी जगह राजकुमार की खोज कराई गई, पर सब निष्फल । इतने में 'नारद' मुनि वहाँ आए । 'रुक्मिणी' और श्रीकृष्ण को सान्त्वना देकर 'सीमंधर' स्वामी के पास गए। उनसे सारी बात पूछकर लौटकर द्वारिका आये
१. ‘त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र' और 'वसुदेव हिंडी' (पीठिका) में राजा का नाम 'कालसंवर' है ।