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२४४ जैन कथा कोष में सारी सेना तड़पने लगी, तब 'प्रभावती' के जीव वाले देव ने तत्काल अपनी दिव्यशक्ति से विशाल जलाशय बनाकर सारी सेना को मरने से बचाया। इन सारे कष्टों को सहकर 'उदायन' ने चण्डप्रद्योत को युद्ध में बन्दी बना लिया, पर उसे ही क्षमायाचना करने के लिए मुक्त करके अपनी सही धार्मिकता का परिचय दिया। यह सारा प्रभाव महासती प्रभावती द्वारा दिये गये प्रतिबोध का ही था।
-त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र
-आवश्यक नियुक्ति १०
१३६. प्रभास गणधर 'राजगृह' में रहने वाले 'बल' ब्राह्मण की पत्नी का नाम था 'अतिभद्रा'। -'अतिभद्रा' के एक पुत्र हुआ। कर्क राशि और पुष्य नक्षत्र में पैदा होने के कारण पुत्र का नाम 'प्रभास' दिया। युवावस्था प्राप्त करके 'प्रभास' वैदिक शास्त्रों के अधिकारी विद्वान बने। वे तीन सौ शिष्यों का अध्ययन-अध्यापन बहुत कुशलता से चलाते थे। अनेक विद्याओं में निष्णात होते हुए भी मन में यह सन्देह था कि मोक्ष है या नहीं? उनके हृदय की इस गुप्त शंका का निवारण किया भगवान महावीर ने। शंका के मिटते ही अपनी सोलह वर्ष की लघुवय में संयमी बन गये। आठ वर्ष छद्मस्थ रहे । पच्चीसवें वर्ष में केवलज्ञान प्राप्त किया। सोलह वर्ष तक केवलपर्याय का पालन करके मात्र चालीस वर्ष की वय में ही मोक्ष में विराजमान हो गये। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में वे ग्यारहवें गणधर थे।
—आवश्यक चूर्णि
१४०. प्रसन्नचन्द्र राजर्षि 'प्रस रचन्द्र' 'पोतनपुर' नगर के अधिशास्ता थे। भगवान् ‘महावीर' का उपदेश सुनकर वैराग्य जगा । अपने लघु पुत्र को राज्य का भार सौंपकर संयमी बन गये और तपःसाधना में लीन रहने लगे।
एक बार भगवान् महावीर के साथ विहार करते हुए 'राजगृह' में पधारे । समवसरण के बाहर सूर्य के सामने ऊर्ध्वबाहु ध्यानस्थ खड़े आतापना ले रहे थे। महाराजा 'श्रेणिक' अपने दल-बल सहित प्रभु के दर्शनार्थ आया। 'सुमुख' और 'दुर्मुख' दोनों दूत भी साथ थे। जब 'दुर्मुख' ने ध्यानस्थ मुनि को देखा,