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२३८ जैन कथा कोष सावधान करने के लिए यहाँ आकर क्यों नहीं कहते कि इन कार्यों से मेरी यह अधोगति हुई है। तू ऐसे कार्य मत करना। वह कभी नहीं आये। इससे यह प्रमाणित होता है कि उनकी आत्मा नरक में नहीं गई, अपतुि शरीर के साथ ही उनकी आत्मा का यहीं विनाश हो गया। शरीर से पृथक् कोई आत्मा का अस्तित्व है ही नहीं।'
केशी स्वामी ने समझाया-'तेरी महारानी 'सूरिकान्ता' के साथ यदि कोई विलासी दुराचार करता है तो तू उसे क्या दण्ड देगा?'
राजा—'जान से मार दूंगा।'
केशी-'यदि वह चाहे कि मुझे थोड़ा-सा समय दे दिया जाए जिससे मैं घर वालों को सजग कर आऊँ कि वे भविष्य में कभी ऐसा पाप न करें, तो क्या तू उसे छोडेगा?'
प्रदेशी-'नहीं, कभी नहीं।'
केशी-'बस, उसी तरह तेरा दादा भी वहाँ से कैसे छूट सकता है? कैसे तुझे सूचित करने आ सकता है?'
प्रदेशी-खैर, दादा तो नहीं आ सकता पर मेरो दादी तो धर्मात्मा थी। आपके सिद्धान्तानुसार तो उसकी आत्मा स्वर्ग में गई है। वह भी यदि मझे आकर कह दे तो मैं मान सकता हूँ।'
केशी'राजन् ! तू स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर स्वस्छ स्थान में जा रहा हो, उस समय यदि कोई शौचालय का निरीक्षण करने तुझे बुलाए तो क्या तू वहाँ जाएगा?'
प्रदेशी-कभी नहीं।'
केशी—'ठीक है, इसी तरह स्वर्गीय सुखों में विभोर बनी तेरी दादी दुर्गन्धमय इस लोक में कैसे, कब और क्यों आने को तत्पर होगी?'
प्रदेशी—'भगवन् ! आप हैं तो प्रत्तयुत्पन्नमति । उत्तर भी तपाक् से दे देते हैं; पर मेरा समाधान अभी नहीं हुआ। मैंने इसका अनेक बार परीक्षण कर लिया है। देखिये, एक बार की बात है, मेरे सामने कोतवाल एक चोर को पकड़कर लाया। मैंने उसे जीवित ही लोहे की एक कुम्भी में डाल दिया। कहीं तनिक भी हवा का संचार नहीं हो सके, ऐसी मजबूत व्यवस्था कर दी। पर फिर भी कुछ दिनों बाद वह मरा निकला। मैं पूछना चाहता हूँ उसका जीव निकला किधर से? कहीं सूक्ष्म-सा भी छेद तो हुआ ही नहीं, साथ में शरीर का भी वह