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जैन कथा कोष २४१
'अब रहा मूर्ख कहने का प्रश्न ! तू जानता ही है कि परिषद् चार तरह की होती है— क्षत्रिय परिषद्, गृहपति परिषद्, ब्राह्मण परिषद् और ऋषि परिषद् | तू यह भी जानता होगा कि किस परिषद् में कौन-सी दण्डनीति अपनायी जाती है?'
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प्रदेशी — हाँ, भगवन ! क्षत्रिय परिषद् का अपमान करने वाला हाथ-पैर या जीवन से हाथ धो बैठता है । गृहपति परिषद् का अपराधी बाँधकर आग में डाला जा सकता है । ब्राह्मण परिषद् का अपराधी विविध प्रकार के चिह्न लगाकर देश से निकाला जा सकता है। पर ऋषि परिषद् के अपराधी को केवल प्रेमपूर्वक उपालम्भ दिया जा सकता है तथा कठोर शब्द कहे जा सकते हैं । '
केशी—'दण्डनीति से परिचित होकर भी मुझसे क्या पूछता है.... ?' प्रदेशी विनम्र होकर बोला- 'मेरा भ्रम तो प्रथम प्रश्न के उत्तर से ही मिट गया था, फिर भी विशिष्ट जानकारी की दृष्टि से आपको श्रम दिया तथा कठोर शब्दों में आपकी अवमानना की ।'
केशी — 'राजन ! तुम जानते हो, व्यापारी चार तरह के होते हैं- (१) माँगने वाले को वचन से सन्तोष देता है तथा धन भी देता है । (२) वचन से सन्तोष देता है, पर देता कुछ भी नहीं । (३) माँगने वाले को देता तो है, पर वचन से सन्तोष नहीं देता है । (४) न देता है और न वचन से सन्तोष ही देता है। तो राजन् ! तुम कौन से व्यापारी हो, सोच लो । '
प्रदेशी—'महाराज ! मैं अपना पुश्तैनी धर्म कैसे छोड़ दूँ?'
केशी - 'राजन् ! तुम लोहवणिक् की तरह पश्चात्ताप करोगे । जिस प्रकार लोहवणिक् ने अपने साथियों का कहना न माना । बहुत समझाने पर भी उसने जवाहारात न लिये और लोहे के भार को ही लेकर घर आया तथा जीवन-भर पछताया, उसी प्रकार अपने पुश्तैनी धर्म को न छोड़कर तुम भी पछताओगे । '
राजा प्रतिबुद्ध होकर श्रमणोपासक बना। सारे राज्य को चार विभागों में विभक्त करके धर्मध्यान में लीन हो गया । 'हमेशा धर्म में रमणीक रहना । ईख के खेत की तरह, नटों की शाला की तरह तथा धान के खलिहानों की तरह अरमणीक (असुन्दर) मत बन जाना ।' यों कहकर मुनिवर तो विहार कर गये । राजा बेले-बेले का तप करने लगा। महारानी ने इसे धर्मग्रथिल समझकर तेरहवें बेले के पारणे में विष मिश्रित भोजन करवा दिया। फिर रानी को पता लगा