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__ जैन कथा कोष २३७ __ यों कहकर घोड़ों की परीक्षा का बहाना बनाकर यथासमय मन्त्री महाराज 'प्रदेशी' को विश्राम के लिए 'मृगवन' में ले आया। यहाँ शिष्य समुदाय सहित बैठे 'केशी' स्वामी को देखकर राजा के मुँह से निकला'ये जड़-मूढ़ यहाँ कौन बैठे हैं? इन सबसे काम करवाया जाता है या यों ही निठल्ले बैठे रहते हैं?'
मन्त्री चित्त ने भी समय का तीर फेंकते हुए कहा—'ये अपने आपको धर्माचार्य मानते हैं। इनकी मान्यता है—आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न हैं। स्वर्ग-नरक, पूनर्जन्म आदि तथ्य समझने के लिए यहाँ सैकड़ों-हजारों व्यक्ति एकत्र होते हैं।'
अपने विचारों के विपरीत के प्रचारक का परिचय पाकर राजा मन-हीमन जल-भुन गया और बोला—'तो क्या हम भी उनके पास चलें।'
'क्या आपत्ति है? अवश्य चलना चाहिए।' मन्त्री चित्त ने कहा।
दोनों मुनि के पास आये। मुनि के प्रथम दर्शन से ही राजा बहुत प्रभावित हुआ। ज्योंही पास आया, मुनि ने कहा—'उद्यान में आते ही तुमने कहा था—'ये जड़-मूढ़ कौन हैं.....?'
राजा थोड़ा सकुचाया, पर उसे मुनि के इस कथन से पता लग गया कि ये चार ज्ञान के धारी, विशिष्ट ज्ञानी हैं। ज्ञान-बल से ही इन्होंने सबकुछ जान लिया है। राजा जब योंही खड़ा रहा, तब मुनि ने कहा—'तुमने मेरी जकात की चोरी की, क्योंकि साधुओं से मिलने पर अभिवादनपूर्वक सत्कार न देना, उनकी जकात की चोरी ही तो है।'
राजा झेंप गया और जब बैठने लगा, तब पूछा—'क्या मैं बैठ जाऊँ?' मुनिराज बोले-बगीचा तुम्हारा है या हमारा?'
राजा पास में बैठ गया और सहमा-सहमा सा बोला—'महाराज ! क्या आपकी यह मान्यता है कि शरीर और अत्मा अलग-अलग है?'
मुनि ने कहा—'हाँ, हम आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न मानते हैं।'
राजा-'यदि ऐसा है तो बात यह है—मेरा दादा मेरे से भी अधिक पापकर्मों से लिप्त रहता था। आपके कहे अनुसार उनकी आत्मा निःसंदेह नरक में जानी चाहिए। लेकिन मेरे दादा मुझसे बहुत प्रेम करते थे। यदि आपकी बात सही है तो उन्हें मेरे पास यह बताने आना चाहिए था कि नरक में बहुत दुःख है तथा पापी को नरक मिलता है। लेकिन वे नहीं आये। वह वहाँ से मुझे