________________
जैन कथा कोष २३१ में युद्ध छिड़ गया। सनातन पद्धति के अनुसार 'पुरुषोत्तम' ने मधु को मारकर अपना बदला लिया तथा तीन खण्ड का अधिशास्ता बना। अपनी उग्र प्रकृति
और आत्म-परिणामों की क्रूरता से मलिनतर बना वासुदेव पुरुषोत्तम तीस लाख वर्ष की आयु में दिवंगत होकर छठी नरक में गया।
बलभद्र सुप्रभ मृगांकुश मुनि के पास संयमी बनकर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में विराजमान हुए।
–त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, ४/४
१३४. पुष्पचूला (सती) गंगातट पर 'पुष्पभद्र' नाम का नगर था। वहाँ के महाराज 'पुष्पकेतु' की महारानी का नाम था 'पुष्पवती'। 'पुष्पवती' ने एक युगल को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया 'पुष्पचूल' तथा 'पुष्पचूला' | दोनों ही भाई-बहन प्रारम्भ से ही साथ-साथ रहते। खाना, पीना, खेलना, सोना आदि क्रियाएं दोनों की साथ-साथ ही चलतीं। दोनों में अत्यधिक प्रेम था। क्षण भर का वियोग भी नहीं सह सकते थे। जब दोनों ही युवा हो गये तब एक दिन महारानी ने महाराज से कहा-'अब इनकी अति निकटता समाज में चर्चा का विषय बन जाएगी। इसलिए इनका विवाह कर देना चाहिए, ताकि एक-दूसरे से अपने आप ही दूर हो जाएं।' राजा ने मौका देखकर 'पुष्पचूला' से कहा-'अब तुम अपना घर बसा लो।'
पुत्री-घर तो बसा हुआ है, फिर नया बसाकर क्या करना है? पिता-घर बसाने का अर्थ है विवाह करना।
पुत्री—यह कैसे संभव होगा? मैं किसी दूसरे के साथ रहूँ और भाई के साथ कोई दूसरी रहे । हम अब तक जैसे निर्विकार और विशुद्ध भाव में एकदूसरे के साथ रहे हैं, वैसे ही आजीवन एक-दूसरे के साथ रहेंगे। एक-दूसरे से दूर रहकर हम जीवित नहीं रह सकेंगे।
राजा ने उनकी बात सुनकर दोनों का विवाह कर दिया। पर वे रहे दोनों बहन-भाई की भाँति ही। राजा ने उनकी विकार-रहित मनोभावना देखकर सोचा—'धन्य है इन्हें, जो यों विकार रहित बने हुए हैं। कितना शान्त और पवित्र जीवन जी रहे हैं। धिक्कार है मुझे ! मैं वृद्धावस्था में भी भोगों में फंसा हुआ हूँ।' यों विचार कर महाराज और महारानी दोनों ने संयम ले लिया।