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जैन कथा कोष २२६ क्षत्रियों को हार पहनना ही अच्छा लगता है, हार शीश पर चढ़ाना नहीं। हार के लिए सिर झुकाना पड़ता है। क्षत्रिय के लिए सिर झुकाना मरने से भी बदतर है। पराजित राजा 'विकट' विकट मुनि बन गया। हारे को हरिनाम ठीक ही है। तीव्र साधना में भी 'विकट' मुनि के मन में 'राजसिंह' के प्रति विद्वेष भभकता रहा। विकट मुनि ने निदान कर लिया-मुझे मेरी तपस्या का बस इतना ही फल चाहिए कि मैं राजसिंह का घातक बनें।
विकट मुनि दूसरे स्वर्ग में गये और वहाँ से चावकर महाराज शिव के पुत्र पुरुषसिंह बने।
उधर राजसिंह भी भ्रमण करता हुआ 'हरिपुर' के महाराज के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। इसका नाम 'निशुम्भ' रखा गया। कुमार 'निशुम्भ' युवा बनकर प्रतिवासुदेव बना। ___ महाराज 'शिव' का दाह ज्वर में देहावसान हुआ तथा अंभका चिता में यों कहकर सती हो गई कि सती की गति पति ही हुआ करता है।
महाराज 'शिव' के दिवंगत हो जाने पर 'निशुम्भ' ने कूटनीति से 'अश्वपुर' नगर का राज्य हड़पना चाहा। अपने दूत के द्वारा इन दोनों राजकुमारों को कहलाया-तुम अभी बालक हो, राज्य-अवस्था से अनभिज्ञ हो। अतः अच्छा रहेगा कि तुम मेरे संरक्षण में आ जाओ। मैं तुम्हारा कुशलता से संरक्षण करता रहूँगा।
पर 'सुदर्शन' और 'पुरुषसिंह' 'निशुम्भ' की इस चालाकी को भाँप गये। उन्होंने 'निशुम्भ' की यह इच्छा ठुकरा दी। फलतः प्रतिवासुदेव निशुम्भ और वासुदेव पुरुषसिंह दोनों में युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में निशुम्भ मारा गया। 'पुरुषसिंह' ने अपना बदला लेकर सुख की साँस ली। वह तीन खण्ड का स्वामी बना। ___ एक बार वासुदेव 'पुरुषसिंह' और बलदेव सुदर्शन' भगवान् 'धर्मनाथ' के कैवल्योत्सव पर गये और देशना सुनी। प्रभु अन्यत्र विहार कर गये।
वासुदेव पुरुषसिंह ने अपना आयुष्य पूरा किया और छठी नरक में गया।
सुदर्शन बलदेव 'कीर्तिधर' मुनि के पास संयमी बनकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बने।
-त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, ४/५