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जैन कथा कोष २१६ वेश्या की ओर देखा और जाने लगे। वेश्या भी इन बातों में विशेष दक्ष थी। आगे आकर बोली-'उठाइये अपना धन, मुझे मुफ्त का धन नहीं चाहिए। मेरे साथ रहकर कुछ देना चाहो तो सादर आमंत्रित हो, अन्यथा मैं इस हराम के धन का क्या करूँ?'
वेश्या के दो-चार वाक्य-बाण और नयन-बाणों से ही मुनि फिसल गये। साधु वेश को तिलांजलि दे दी, पर मन में सात्त्विक ग्लानि अवश्य थी। सोच रहे थे—मैं राजपाट छोड़कर साधु बना। कहाँ फंस गया। पर करें क्या? वेश्या के यहाँ रहे तो सही, पर मन में संकोच अवश्य था। उस उदासी को मिटाने के लिए एक संकल्प कर लिया कि मैं प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रतिबोध देकर ही अन्न-जल ग्रहण करूँगा। इस दुष्कर प्रतिज्ञा को कई वर्ष हो गये। ___एक दिन नौ व्यक्ति तो समझ गये, पर दसवाँ स्वर्णकार मिला। उसे जब प्रतिबोध देने लगे, तब व्यंग्य कसते हुए उसने कहा- यह क्या ढोंग रचा रखा है? स्वयं तो साधुत्व को छोड़ वेश्या के साथ रह रहे हो और दूसरों को प्रतिबोध देने चले हो।' इस विवाद में काफी समय हो गया। भोजन के लिए बुलाने को पहले लड़का आया, फिर वेश्या स्वयं आयी। नंदीषण ने कहा—'अभी नौ ही प्रतिबुद्ध हुए हैं, दसवाँ बाकी है।' वेश्या ने सहजता से कहा-'दसवें स्वयं
आप ही बन जाइये, पर खाना तो खाईये।' ___नंदीषेण का सोया आत्मबल जाग गया। भगवान् महावीर के समवसरण की ओर चल पड़े। वेश्या ने बहुत कहा, पर नंदीषेण अब रुकने वाले नहीं थे। प्रभु के पास जाकर अपने पापों का प्रायश्चित किया। पुनः संयम में सुस्थिर होकर तपस्या में लीन हो गये और तपोसाधना करते हुए आयु पूर्ण कर देव बने।
–त्रिशष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०/६
-आवश्यक्रचूर्णि, पूर्वार्द्ध, पत्र ५५६ -आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र ४३०-३१
१२७. नंदीषेण मुनि मगध देश के 'नन्दी' ग्राम में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम 'सोमिला' था। उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम 'नंदीषण' रखा गया।