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२०४ जैन कथा कोष सामग्री अपने पास रख लेती। ___ ज्यों-ज्यों प्रसाधन सामग्री वह अपने पास रखने लगी, त्यों-त्यों 'मणिरथ' उसकी ओर अधिक आकर्षित होने लगा। सत्य ही है, कामी व्यक्ति सभी को अपने ही समान समझता है। ___ एक दिन मौका देखकर 'मणिरथ' ने दासी के द्वारा स्पष्ट कहला ही दिया। दासी की बात सुनकर सती का सतीत्व फुफकार उठा। दासी की बहुत बुरी दशा करके वापस भेजा। 'मणिरथ' फिर भी नहीं सँभला। सोचा-हो न हो वह किसी तीसरे को बीच में नहीं रखना चाहती है। यों विचार कर एक दिन अकला ही महलों में चला आया। 'मदनरेखा' ने अपनी सास को आवाज देकर बहुत ही चातुर्य से उसको वापस लौटा दिया। मणिरथ अपनी कामज्वाला को शान्त न कर सका।
जब युगबाहु सीमा के युद्ध में विजयी होकर लौटा तो मणिरथ ने उसे नगर के बाहर उद्यान में रखा । वह रात को भी वहीं रहा । मदनरेखा भी उसके पास पहुँच गई। 'मणिरथ' ने सोचा—आज का अवसर अच्छा है। हाथ में विषबुझी तलवार लेकर रात्रि के अंधकार में बगीचे में आ पहुँचा। सोये हुए 'युगबाहु' की गर्दन पर प्रहार किया और भाग गया। मरणासन्न 'युगबाहु' को उस समय मदनरेखा ने बहुत धार्मिक सहयोग दिया। अपने दुःख को मानो भूल गई हो। नमस्कार मन्त्र सुनते-सुनते युगबाहु के प्राण-पखेरू उड़ गये। वह स्वर्ग
में गया। उधर ज्योंही मणिरथ युगबाहु को मारकर तेजी से दौड़ा, तभी घोड़े के . पैर से दब जाने के कारण एक साँप ने उसे काट लिया और मणिरथ मौत के मुँह में जा पहुंचा। वह मरकर नरक में गया।
'मदनरेखा' अपने सतीत्व की रक्षा हेतु वन में चली गई। जंगल के भयंकर कष्ट सहन करती हुई एक वृक्ष के नीचे पुत्र को जन्म दिया। अपनी साड़ी के एक पल्ले में डालकर उसे वहीं वृक्ष पर लटका दिया और स्वयं देह-शुद्धिहेतु सरोवर पर गई। संयोगवश वहाँ एक मदोन्मत्त हाथी ने उसे अपनी सूंड में उठा लिया और घुमाकर बहुत दूर आकाश में उछाल दिया। उसी समय आकाश-मार्ग से जाते मणिप्रभ विद्याधर ने उसे देखा और उसे आकाश में ही लपक लिया। वह भी उसके रूप पर मोहित हो गया। मदनरेखा को जब होश आया तब उसका परिचय जानना चाहा। 'मणिप्रभ' ने कहा-मैं विद्याधर हूँ। मेरे पिताश्री जो मुनि बने हुए हैं, उनके दर्शनार्थ मैं जा रहा हूँ। तेरे रूप पर