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जैन कथा कोष २०६ उधर 'नल' आगे बढ़ा। उस समय उसका पिता 'नैषध' जो पाँचवें स्वर्ग में देव बना था, अवधिज्ञान के योग से नल को विपदा में घिरा देखकर वहाँ आया। वन में बाँसों के जलते झुरमुट में सर्प का रूप बनाकर सहायता एवं रक्षा के लिए पुकारने लगा। उसकी वह करुण पुकार सुनकर 'नल' उसे बचाने गया और बचा भी दिया। परन्तु सर्प ने अग्नि से बाहर निकलते ही 'नल' को डंक मारा, जिसके परिणामस्वरूप 'नल' कुबड़ा हो गया। अपने को कुबड़ा बना देखकर नल ने साश्चर्य कहा—'शाबाश, सर्पराज ! आपने उपकार का अच्छा प्रतिफल दिया। मैंने तो तुम्हें बचाया और तुमने मुझे विरूप बना दिया।' 'नल' की बात सुनकर सर्प सहसा अपने को देवरूप में बदलकर बोला—'नल ! मैंने यह सब कुछ तुम्हारी भलाई के लिए किया है। इस रूप में तुम अपने को सुरक्षित रख सकोगे। शत्रु तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। बारह वर्ष बाद पुनः अयोध्या के स्वामी बन जाओगे। दमयन्ती भी तुम्हें मिल जायेगी। अब यह श्रीफल (नारियल) और यह एक करंडिका (पेटी) लो। तुम अपने आपको जब भी मूल रूप में लाना चाहो, तब इस श्रीफल को फोड़ लेना। इसमें जो वस्त्र निकलें उन्हें पहन लेना। इस करंडिका से एक हार निकलेगा। उसे पहनते ही तुम मुल रूप में आ जाओगे।'
नल ने पिता-देव की दोनों वस्तुएं प्राप्त कर उनका आभार माना। देव अन्तर्ध्यान हो गया।
नल वहाँ से आगे चला। सुंसुमार नगर में पहुँचा। वहाँ 'गजदमनी' विद्या के योग से एक मदोन्मत्त हाथी को वश में किया। इसलिए वहाँ के महाराज 'दधिपर्ण' ने 'नल' को बहुत सम्मान दिया और अपने पास प्रतिष्ठित पद पर रख लिया। उस कुबड़े ने अपने-आपको नल का रसोईयां बताया तथा यह भी कहा कि मैं नल के यहाँ रहने से सूर्यपाक रसवती बनाना भी जानता हूँ।
उधर महाराज भीम ने नल राजा की खोज करने के लिए अनेक प्रयत्न किये । खोज करने पर पता लगा कि महाराज दधिपर्ण के पास 'नल' का एक रसोईयां रह रहा है। वह कुबड़ा है और अपने आपको सूर्यपाक रसवती का जानकार बताता है। दमयन्ती ने सोचा हो न हो 'नल' वही हैं, पर वह कुबड़ा कैसे हुए? बात का भेद पाने के लिए कुछ व्यक्तियों को एक संकेत देकर उधर