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जैन कथा कोष २०७ ये सारे नौकर-चाकर, धन-वैभव, परिजन, पुरजन, पुत्र, कलत्र आदि का समुदाय ही दु:खदाता है। अकेलेपन में सुख है, दो मिलने पर दुःख है।
यों विचारकर नमिराज सारी राज्यसम्पत्ति को ठुकराकर चल पड़े। स्त्रियों, नगरजनों का विलाप भी उसके संयम-पथ में बाधक न बन सका। दीक्षा लेने के लिए उत्सुक बने नमि से देवेन्द्र ने आकर प्रश्न किये। राज्य का संरक्षण करना समुचित बताकर संयम न लेने के लिए कहा पर विदेह बने नमिराज ने उन प्रश्नों का समुचित और समयोचित उत्तर देकर देवेन्द्र को सन्तुष्ट किया।
संयमी बनकर उग्र तपस्या के द्वारा कर्मक्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया और सिद्धिस्थान में जा विराजे । ये प्रत्येकबुद्ध कहलाये।
-उत्तराध्ययन वृत्ति, ६
११७. नमि-विनमि 'अयोध्या' के पास रहने वाले आदिनाथ के सामन्त महाराज 'कच्छ' के पुत्र का नाम था 'नमि' और 'महाकच्छ' का पुत्र था 'विनमि'। 'आदिनाथ' प्रभु जब अपना राज्य अपने पुत्र को देकर संयमी बने तब 'नमि-विनमि' कहीं बाहर गए हुए थे। जब लौटकर आये तब अपने पिता कच्छ-महाकच्छ को नहीं देखा। पूछने पर पता चला कि वे दोनों प्रभु के साथ संयमी बन गये हैं। प्रभु ने अपने सभी पुत्रों को राज्य दिया था। नमि-विनमि यह सुनकर बहुत दुखित हुए। आदिनाथ प्रभु के पास आकर राज्य की याचना की। दोनों ही प्रभु की सेवा में लीन रहने लगे। __एक बार नागकुमार देवों का स्वामी धरणेन्द्र प्रभु के दर्शनों के लिए आया। इन्हें प्रभु की सेवा करते देख बहुत प्रसन्न हुआ और बोला-'प्रभु संयमी बन गये हैं। तुम्हे राज्य चाहिए तो 'भरत' से जाकर माँगो।' उन्होंने कहा-'भरत से क्या राज्य माँगना है, जैसे .हम हैं, वैसे वे हैं। हम तो प्रभु के पास ही राज्य लेंगे।' धरणेन्द्र इनका दृढ़ निर्णय सुनकर संतुष्ट हुआ। उसने वैताढ्य पर्वत की दक्षिण-उत्तर श्रेणी का राज्य इन्हें दिया तथा अनेक विद्याएँ भी सिखाईं। ये विद्याधर कहलाये। वैताढ्य गिरि पर दक्षिण श्रेणी और उत्तर श्रेणी में कई नगर बसाए।
जब महाराज भरत दिग्विजय के लिए चले तो मार्ग में नमि-विनमि उनके सामने अड़े। घोर युद्ध हुआ। अन्त में विनमि ने अपनी पुत्री 'सुभद्रा' का विवाह