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१६२ जैन कथा कोष देख नागश्री अत्यन्त प्रसन्न हुई। सोचा, साग को फेंकने के लिए सहज ही गन्दगी की ढेरी (अकुरड़ी) आ गई है। यों विचार कर सारा का सारा साग मुनि के पात्र में डाल दिया। धर्मरुचि मुनि गोचरी लेकर स्थान पर आए, साग से भरा वह पात्र गुरुदेव के सम्मुख रखा। गुरुदेव ने उसकी गन्ध से पहचानकर कहा-वत्स ! यह विषं भोजन है। यदि इस आहार को तू करेगा तो प्राण-नाश की आशंका है। इसलिए कहीं शुद्ध भूमि में जाकर इसका परिष्ठापन कर दो।
धर्मरुचि उस पात्र को लेकर वन की ओर बढ़े। विशुद्ध भूमि को देखकर ज्योंही विसर्जन करने लगे तो देखा साग की एक बूंद पर अगणित चीटियाँ आ गईं थीं। सोचा-यह तो अनर्थ हो जाएगा। गुरुदेव ने कहा है कि प्रासुक भूमि में विसर्जन करना तो इसके लिए सबसे प्रासुक भूमि मेरा पेट ही है। यों विचारकर समता में लीन मुनि ने उस सारे शाक का आहार कर लिया। उसकी परिणति होते ही मुनिवर ने अत्यन्त शुद्ध भावों के साथ देह त्याग दिया और सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए।
धर्मरुचि अनगार की मृत्यु का भेद ज्योंही नगरवासियों को ज्ञात हुआ, वे नागश्री को धिक्कारने लगे। इधर नागश्री के घरवालों ने भी उसे मुनि की हत्या करने वाली समझकर भर्त्सना करके घर से बाहर निकाल दिया। उसे जहाँ भी कोई मिलता, उसके इस घोर अकृत्य की निन्दा करता, धिक्कारता । अपने यहाँ उसे कोई भी ठहरने नहीं देता। वह बेचारी भटकती रही। उसके शरीर में सोलह महारोग हो गए। महाभयंकर वेदना से पीड़ित होकर मरकर छठी नरक में पैदा हुई। ___ छठी नरक से निकलकर नरक और तिर्यंच के कई भवों में भटकती हुई चम्पानगरी में सागरदत्त सेठ के यहाँ पुत्री जन्मी। इसका नाम 'सुकुमारिका' रखा गया। जब यह विवाह योग्य हो गई, तब उसी नगर में रहने वाले 'जिनदत्त' सेठ के पुत्र सागर के साथ विवाह हो गया। लेकिन पाप के प्रचुर उदय से 'सुकुमारिका' के शरीर को स्पर्श करने वाले का शरीर जलने लगता। 'सागर' को भी उसके शरीर का स्पर्श अग्नि के समान लगा। वह भयभीत होकर रात्रि में उसे छोड़कर चला गया।
जब उसके पिता ‘सागरदत्त' को पता लगा तो वह अपनी पुत्री को घर ले आया और उसे सान्त्वना दी। एक भिखारी को बुलाकर उसे वस्त्राभूषणों