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जैन कथा कोष २०१
उनकी देशना से प्रभावित होकर श्रावकधर्म स्वीकार किया । - धर्मोपदेशमाला, विवरण, कथा १४४
११४. नग्गति
'गान्धार' देश का राजनगर था पुण्ड्रवर्धन | उसके राजा का नाम था 'सिंहरथ' । राजा सिंहरथ एक बार वक्र शिक्षित अश्व पर सवारी करने के कारण जंगल
बहुत दूर भटक गया। जब घोड़ा रुका और राजा उससे नीचे उतरा तो देखा सामने एक ऊँचे पर्वत पर एक सुन्दर राजमहल है। राजा मन-ही-मन कौतूहल लिये उस महल में घुसा । महल भव्य था । चारों ओर साज-सज्जा अच्छी थी, पर था सुनसान । मन-ही-मन विस्मय लिये राजा ज्योंही महल में बढ़ा तो एक रूपवती कन्या ने राजा का स्वागत किया। राजा ने जब उस सुन्दरी का परिचय जानना चाहा तब कन्या ने कहा- 'वैताढ्य पर्वत के 'तोरणपुर' नगर के महाराज 'दृढ़शक्ति की मैं पुत्री हूँ। मेरा नाम 'कनकमाला' है। मेरे रूप पर मुग्ध बना एक विद्याधर मुझे वहाँ से यहाँ ले आया। जब मेरे भाई को पता लगा तो वह भी यहाँ आया। दोनों परस्पर भिड़ पड़े और दोनों ने एक-दूसरे को मार गिराया। मैं असहाय बनी यहाँ रह रही हूँ । आपको देखते ही मैं आपके प्रति समर्पित हूँ, आप मुझे स्वीकार कीजिए। '
सिंहरथ ने उसके साथ वहीं गन्धर्व विवाह कर लिया। उसे लेकर विमान में बैठकर अपने राज्य में लौट आया। प्रतिदिन विमान में बैठकर उसके साथ इधर-उधर घूमने जाने लगा । पर्वत पर विशेष रूप से जाता इसलिए सिंहरथ का नाम नग्गति' पड़ गया ।
नग्गति एक दिन अपने सेवकों के साथ वन-भ्रमण को गया । मार्ग में फल-फूलों से लदा हुआ आम्र वृक्ष देखा । राजा उस पर अंतिशय मुग्ध हो उठा और उसे बार-बार देखता रहा। उसने हाथ ऊँचा करके एक गुच्छा तोड़ लिया । उसके पीछे जाने वाले सेवकों ने भी फल-फूल पत्ते तोड़े। पेड़ ठूंठ रह गया । शाम को जब राजा नग्गति वन विहार से लौटा तो उसी आम्रवृक्ष को सूखा हुआ, फल-फूलों से हीन देखकर चौंका । चिन्तन ने करवट ली। सोचा—यह सारी पौद्गलिक रचना नाशवान है। सरस से सरस दिखने वाली वस्तु भी
१. नग्गति—– नगगति पहाड़ पर जाने वाला।