________________
जैन कथा कोष १२३
'देवकी ! ये पुत्र तुम्हारे ही हैं, सुलसा के यहाँ बड़े हुए हैं; किन्तु ये हैं तुम्हारे ही । सुलसा के मृत पुत्रों को लाकर देवता ने तुम्हारे यहाँ रख दिया था । '
देवकी ने पुनः उन मुनियों के दर्शन किये। ज्यों-ज्यों वह उन्हें देखती, त्योंत्यों रोमांचित हो उठती थी । वन्दना करके महलों में आ बैठी। पर मन में एक नया दुःख उभर आया कि सात-सात पुत्र पैदा हुए थे । ये छः सुलसा के यहाँ पले और सातवें श्रीकृष्ण का लालन-पालन गोकुल में हुआ । मैंने सात पुत्रों क प्रसव करके भी लालन-पालन एक का भी नहीं किया। एक की भी बालक्रीड़ाओं से आनंदित नहीं हुई । मुझ जैसी अभागी कौन होगी?
मन-ही-मन वह झूर रही थी । इतने में चरण-वन्दन के लिए श्रीकृष्ण महलों में आये। देवकी ने अपनी मनोव्यथा श्रीहरि से स्पष्ट कह डाली । अपनी माँ की मनोव्यथा मिटाने के लिए श्रीकृष्ण ने पौधशाला में तीन दिन का व्रत किया। देवता ने उपस्थित होकर लघु बांधव होने का संकेत दिया, पर साथ में इतना अवश्य कहा- -" वह अल्पायु में ही मुनि बन जायेगा । "
सवा नौ महीने में देवकी के पुत्र पैदा हुआ। गजतालु के समान कुमार का तन सुकोमल था अतः इसका नाम भी गजसुकुमार रखा गया । गजसुकुमार बड़ा होने लगा | श्रीकृष्ण ने सोमिल ब्राह्मण की पुत्री सोमश्री अपने लघु भाई के लिए अविवाहित ही अन्तःपुर में रखवा दी।
तीर्थंकर ‘अरिष्टनेमि' द्वारिका में पधारे। 'गजसुकुमार' प्रभु के उपदेश से प्रबुद्ध हुआ। श्रीकृष्ण, वसुदेव और देवकी ने संयम नहीं लेने के लिए बहुत-बहुत कहा, परन्तु ‘गजसुकुमार' कब रुकने वाले थे। जब पूर्णतः सज्जित हो उठे, तब माता ने आशीर्वाद देते हुए कहा - "देख लाल ! अब दूसरी और माता न बनाना । बस, तेरी अन्तिम माँ मैं ही हूँ, इसी सजगता से संयम पथ पर बढ़ना है । "
माँ की इस शिक्षा को साकार करने के लिए गजसुकुमार ने मुनि बनकर प्रभु की आज्ञा लेकर महाकाल श्मशान भूमि में जाकर भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा स्वीकार कर ली ।
मुनि ध्यानस्थ खड़े थे। उधर से सोमिल आया। मुनि को देखते ही उसका क्रोध भभक उठा || मन ही मन बड़बड़ाता हुआ कहने लगा- ' - 'ढोंगी कहीं का ! मेरी पुत्री का जन्म ही बिगाड़ दिया। अब यहाँ आकर साधु बन गया । आव देखा न ताव, गीली मिट्टी लाकर सिर पर पाल बाँध दी, फिर पास खड़े धधकते अंगारे उसमें भर दिये ।