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१४६ जैन कथा कोष
भेद बता दिया।
'नमुचि' मौका देखकर वहाँ से भगा खड़ा हुआ। वहाँ से चलकर नमुचि हस्तिनापुर में पहुँचकर चक्रवर्ती 'सनत्कुमार' के यहाँ नौकरी करने लगा । प्रारम्भ में साधारण-सी ही नौकरी मिली थी, पर अपने प्रतिभा - बल से वह चक्रवर्ती का प्रिय पात्र बन गया ।
संगीतकला में निष्णात बने चित्त-संभूति ने किसी विशेष प्रसंग पर संगीत कला का प्रदर्शन राजा के समक्ष किया। इनका संगीत सुनकर सभी झूम उठे । सुनने वालों ने जब पहचाना कि ये चाण्डाल हैं, तब उन्हें बुरी तरह से पीटने लगे । चाण्डाल - पुत्रों को विद्या प्राप्ति का अधिकार ही कब और कैसे मिल सकता है? वे भी अपने प्राण बचाने वन की ओर भाग गये। जीवित तो बच गये, पर उनके मन में ग्लानि उभर आयी —- उफ ! जाति की अधमता से हमारी सारी कलाएं भी बेकार हैं। धिक्कार है ऐसे जीवन को ! इस प्रकार विचार कर आत्महत्या करने को उतारू हो गये। पर्वत से झंपापात लेना ही चाहते थे, इतने में ही ध्यानस्थ खड़े मुनि ने उन्हें देख लिया । आत्महत्या को एक जघन्यतम कृत्य बताते हुए उन्होंने इन्हें मुनि बनने की प्रेरणा दी। दोनों भाई संयमी बनकर विचरने लगे ।
एक बार वे दोनों मुनि हस्तिनापुर में आये । महलों से 'नमुचि' ने इन्हें देखकर पहचान लिया। नमुचि ने सोचा- मेरे सारे हथकण्डों का इन्हें पता है, कहीं भण्डाफोड़ न कर दें।
तत्क्षण अपने पास बुलाकर मुनियों को मारने लगा । उन तपस्वी मुनियों के पास में शस्त्र कहाँ थे? मार पड़ते ही संभूति मुनि कुपित हो उठे और अपने मुँह से तेजोलेश्या का धुआँ निकाला ।
जब चारों ओर धुआँ-ही-धुआँ हो गया, तब चक्रवर्ती चौंका । सोचा कि हो न हो किसी ने मुनि को संतापित किया है और उसी कारण यह सबकुछ हुआ है। मुनि को प्रशान्त करने चक्रवर्ती सपरिवार वहाँ आया । 'नमुचि' के द्वारा किये गये कृत्यों की माफी चाही । 'चित्त' मुनि ने भी संभूति मुनि को शान्त करने के लिए उपदेश दिया। मुनि ने अपनी लेश्या का संहरण किया ।
पद-वन्दन करते चक्रवर्ती की रानी 'सुनन्दा' के केशराशि में लगा हुआ बावना चन्दन के तेल का एक बिन्दु मुनि के पैरों में गिर गया। उसकी ठंडक
१. कहते हैं कि मुनि संभूति के चरणों से रानी के कोमल केशों का स्पर्श हो गया था ।