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१७६ जैन कथा कोष हुआ था वह मर गया है, इसलिए रोना-धोना शुरू हो गया है।
बात के तार उधेड़ते कुमार को पता लगा कि मुझे भी एक दिन मरना पड़ेगा, तब भयाकुल हो उठा। अमरत्व प्रदान करने वाले भगवान् नेमिनाथ ही हैं। वह उनकी शरण में जाने को आतुर हो उठा। भगवान् नेमिनाथ द्वारिका पधारे तब प्रभु का उपदेश सुनकर थावर्चापुत्र संयम लेने को तैयार हो गया। माता ने अपने पुत्र को संसार में रखने के लिए अनेक तर्क दिये, तरह-तरह से समझाया-बुझाया; पर कुमार ने उन सबको काटकर संयमी जीवन की उपयोगिता बताई। माता पराजित हुई। उसे दीक्षा की अनुमति देनी पड़ी।
सेठानी की प्रार्थना पर स्वयं श्रीकृष्ण दीक्षा महोत्सव करने को तैयार हुए। थावर्चापुत्र की दृढ़ता की परीक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने उसे समझाया और कहा—'मैं तुम्हारी सब प्रकार से रक्षा करूंगा, तुम संसार में ही रहो।' श्रीकृष्ण के समझाने पर कुमार ने कहा-'यदि आप मेरे जन्म, जरा और मृत्यु को समाप्त कर दें तो मैं भगवान् नेमिनाथ की शरण में न जाकर आपकी शरण में आ सकता हूँ।'
श्रीकृष्ण ने कहा—'यह काम मेरे से तो क्या, देव-दानवों से भी नहीं होने वाला है।'
अन्त में श्रीकृष्ण ने द्वारिका में यह घोषणा करा दी कि जो संयम लेना चाहते हैं वे संयम लें, पीछे वालों की सारी व्यवस्था मैं करूँगा। पंचमुष्टि लोच करके थावर्चापुत्र ने एक हजार पुरुषों के साथ संयम स्वीकार किया।
एक बार 'थावर्चा' अनगार अपने एक हजार शिष्यों सहित जनपद में विहार करते-करते सेलकपुर नगर में आये। उनके उपदेश से प्रभावित होकर वहाँ के महाराज 'सेलक' ने अपने पंथक प्रमुख पाँच सौ मंत्रियों सहित श्रावकधर्म स्वीकार किया।
उस समय शुक नाम का परिव्राजक वहाँ आया हुआ था। 'शुक' परिव्राजक ने सुदर्शन सेठ को 'शुचिमूलक धर्म' का उपदेश देकर प्रतिबुद्ध किया था, पर उसी सुदर्शन सेठ ने थावर्चा अनगार से 'विनयमूलक धर्म' का उपदेश सुनकर उसे स्वीकार कर लिया। इस कारण शुक थावर्चा अनगार के पास आया। दोनों में पर्याप्त संवाद चला पर थावर्चा अनगार की ज्ञान-शक्ति से प्रभावित होकर शुक परिव्राजक अपने एक हजार शिष्यों सहित उनका शिष्य बन गया। यों अनेक जीवों को प्रतिबुद्ध करते हुए थावर्चा अनगार ने