________________
जैन कथा कोष १८३ दामनक को आश्रय मिल गया। वह दिन-भर मेहनत से काम करता। सेठ उसकी मेहनत और ईमानदारी से बहुत खुश था।
सेठ के घर एक दिन दो साधु भिक्षा-हेतु आये। वृद्ध साधु ने दामनक की ओर संकेत करके कहा—इस बालक की तकदीर जल्दी ही पलटने वाली है, यह इस घर का मालिक बन जायेगा। ___ साधु के ये शब्द सागरदत्त के कान में भी पड़ गये। उसने सोचा—'जब मेरा पुत्र सभी प्रकार से योग्य है तो इसे अपने घर का स्वामी क्यों बनने दूँ? इस काँटे को अभी निकाल देना चाहिए।' यह सोचकर उसने एक चाण्डाल को धन देकर उसके वध का आदेश दिया और कहा कि इसकी आँखें निकालकर मुझे दे देना। चाण्डाल दामनक को वन में ले गया, लेकिन उसके भोले मुख पर अहिंसा के भाव देखकर द्रवित हो गया। उसने उसे मारा नहीं, यह कहकर भगा दिया कि इस नगर में भूलकर भी न आना और सागरदत्त को हरिण-शावक की आँखें लाकर दे दी।
दामनक वन में चलता हुआ एक गाँव के समीप पहुँचा। वहाँ एक गोपालक गायें चरा रहा था। गोपालक ने उसे अपने पास रख लिया। वह वहाँ घी-दूध-दही खाता, गायें चराता और आनन्द से रहता। उसके अच्छे व्यवहार से सभी गाँव वाले उसे चाहने लगे। अब वह युवक हो चुका था।
एक बार सेठ सागरदत्त उन गोपालकों के गाँव में आया। उसने दामनक का परिचय पूछा। गोपालक ने बताया-अनाथ है, जंगल में भटक रहा था, मैंने अपने पास रख लिया।
सेठ सागरदत्त समझ गया कि चाण्डाल ने इसे मारा नहीं, जीवित ही छोड़ दिया है। अब सेठ ने इसे मारने की दूसरी तरकीब अपनाई। उसने एक पत्र लिखा और गोपालक से कहा—इस पत्र को इस युवक के हाथों मेरे घर भिजवा दो। पत्र गोपनीय है, इसमें एक आवश्यक कार्य के बारे में लिखा है। यह युवक विश्वासी दिखाई देता है, अतः उपयुक्त रहेगा।
दामनक पत्र लेकर चल दिया। नगरी के बाहर एक उद्यान में देव-मन्दिर था। थकान मिटाने के लिए वह वहाँ लेट गया। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी इसलिए उसे गहरी नींद आ गई।
उसी समय सेठ सागरदत्त की पुत्री देव-पूजन के लिए वहाँ आयी। उसका नाम विषा था। उसने जो दामनक को देखा तो उस पर मोहित हो