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१८६ जैन कथा कोष
पकड़ने न गया तो मेरी पत्नी मुझ पर नाराज हुई। हिंसा न करने की बात सुनकर तो आग-बबूला ही हो गई। मेरे सगे-सम्बन्धियों ने भी मुझ पर दबाव डाला और जबरदस्ती गंगातट पर ले गये। विवशता में मैंने तीन बार जाल डाला और जब मछलियाँ उसमें आ गईं तो ढीला छोड़ दिया। ढीला छोड़ने से मछलियाँ निकल गईं ।
इस प्रकार अहिंसा व्रत में दृढ़ रहने की भावना से मैंने पुनः मनुष्य जन्म पाया और तीन बार सिर पर आयी हुई मौत टल गई ।
इसके बाद दामनक ने राजा को अपने इस जीवन का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया। सुनकर सभी श्रोता अहिंसा भावना से प्रभावित हुए। राजा को तो वैराग्य ही हो गया ।
दामनक भी अन्त में विरक्त हुआ और संयम साधना करके स्वर्ग में गया। क्रमशः वह मुक्त होगा ।
- आख्यानक मणिकोष, १५ _वर्धमान देशना
१०५. द्विपृष्ठ वासुदेव
'द्वारिका' नगरी के महाराज 'ब्रह्म' के दो रानियाँ थीं— 'उमा' और 'सुभद्रा' । 'सुभद्रा' ने चार स्वप्न से सूचित एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया 'विजय' जो कि दूसरा बलदेव हुआ । 'उमा' ने भी सात स्वप्न से सूचित एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम 'द्विपृष्ठ' रखा गया। यह दूसरा वासुदेव कहलाया । 'द्विपृष्ठ' कुमार प्राणत ( दसवें ) स्वर्ग से च्यवकर आया था ।
यह देव अपने पूर्वभव में 'साकेतपुर' का स्वामी 'पर्वत' था । इसके पास 'गुणमंजरी' नाम की एक अति सुन्दरी नर्तकी थी। उस नर्तकी की महिमा सुनकर 'विन्धयपुर' नगर का स्वामी 'विन्ध्यशक्ति' उसे लेने को ललचाया । दूत के द्वारा विन्ध्यशक्ति ने नर्तकी की माँग की। माँगने से भला अपनी प्रिय वस्तु कौन किसे देता है? दोनों में युद्ध छिड़ गया। युद्ध में पर्वत की पराजय हुई और वह भाग छूटा। पलायन करने वालों का आश्रय स्थान अरण्य ही हुआ करता
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है | लम्बे समय तक पर्वत इधर-उधर भटकता रहा। संयोगवश 'पर्वत' को वन में 'संभवाचार्य' के दर्शन हो गये। उसने उनसे श्रामणी दीक्षा ले ली। उग्र तप:साधना में लग गया, पर 'विन्ध्यशक्ति' द्वारा किया हुआ अपमान नहीं भूल