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जैन कथा कोष १७६
अत्यन्त रूपवती और गुणवती थी । स्वयंवर में इसने अनेक सुर-नरों को छोड़कर अयोध्यापति राजा नल के गले में वरमाला डाली ।
राजा नल का एक छोटा भाई था कूबर। नल पहले तो उसके सा मनोरंजन के लिए ही जुआ खेलने लगा और उसके बाद जूए में रम ही गया । परिणाम यह हुआ कि सारा राजपाट हार गया। राज्य छोड़कर दमयन्ती के साथ उसे वन में जाना पड़ा।
वन
में राजा नल दमयन्ती के कष्ट न देख सका । अतः उसे सोती हुई छोड़ गया । दमयन्ती अकेली रह गई। काफी देर पति के लिए विलाप करती रही। फिर धैर्य धारण किया । यद्यपि राजा नल ने उत्तरीय पर एक श्लोक लिखकर पीहर जाने का संकेत किया था, किन्तु वह पिता के घर न गई। एक पर्वत की गुफा में रहकर ही धर्मध्यान करती रही और पाँच सौ तापसों को सद्धर्म का मार्ग दिखाया।
उसके बाद एक सार्थ के साथ वह अपने मौसा ऋतुपर्ण के यहाँ अचलपुर पहुँची । वहाँ भी इसने अपना परिचय न दिया । वहाँ इसने शील के प्रभाव से एक चोर को मुक्त कराया। तब ऋतुपर्ण राजा को इसका वास्तविक परिचय प्राप्त हो सका ।
वहाँ से यह अपने पिता भीम राजा के पास पहुँची । नल को ढूँढने के लिए इसका पुन: स्वयंवर किया गया। वहाँ नल-दमयन्ती का सोलह वर्ष बाद पुनर्मिलन हुआ । ( नल का विशेष चरित्र 'नल' राजा कथा ११८ में देखें) । तदुपरान्त नल-दमयन्ती को साथ लेकर अयोध्या गया और राज्य को पुनः जीता | नल-दमयन्ती सुख से रहने लगे।
कुछ समय तक सुख भोगने के बाद दमयन्ती को वैराग्य हो गया। उसने दीक्षा ग्रहण कर ली और आयु पूर्ण करके देवलोक में गई ।
दमयन्ती महासती के रूप में प्रसिद्ध हुई।
- त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व ८
१०२. दशरथ राजा
राजा दशरथ अयोध्यानरेश महाराज अनरण्य के पुत्र थे । अनरण्य ने अपने मित्र माहिष्मतीनरेश सहस्रांशु के पास दीक्षा ले ली थी। उन्हीं के साथ उनका बड़ा पुत्र अनन्तरथ भी प्रव्रजित हो गया था। अतः अयोध्या का राज्यपद दशरथ को
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