________________
जैन कथा कोष १७७ केवलज्ञान प्राप्त करके पादपोपगमन अनशन स्वीकार करके मोक्ष पद प्राप्त कर लिया।
"शुक' अनगार अपनी शिष्य-मण्डली सहित विहार करते 'सेलक नगर' में पधारे । वहाँ के महाराज 'सेलक' ने अपने पाँच सौ मंत्रियों सहित संयम स्वीकार किया। एक हजार शिष्यों सहित 'शुक' अनगार ने पुण्डरीक पर्वत पर सिद्ध गति को प्राप्त किया।
अरस आहार से 'सेलक' राजर्षि के कोमल शरीर में अनेक रोगों की उत्पत्ति हो गई। विहार करते वे जब सेलकपुर आये तब उन्हीं के पुत्र 'मंडूक' ने वहाँ रहकर चिकित्सा कराने की प्रार्थना की। राजा की विश्रामशाला में महर्षि विराजे । समुचित चिकित्सा से रोग शांत हो गया। परन्तु सुस्वादु भोजन में आसक्त होकर सेलक राजर्षि आचार-क्रिया में शिथिल हो गये। वहाँ से विहार करने की इच्छा न देखकर पंथक मुनि तो सेवा में रहे, शेष चार सौ निन्यानबे मुनि अन्यत्र विहार कर गये।
एक बार शिथिलाचारी सेलक सुख से सो रहे थे। पंथक मुनि ने चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके 'सेलक' मुनि से क्षमायाचना करने का पैरों में मस्तक दिया। 'सेलक' की नींद खुली। कुपित होकर जगाने का कारण पूछा। पंथक ने विनय से चातुर्मासिक क्षमायाचना की। 'सेलक' अपने प्रमाद को धिक्कारने लगे। संयमी बनकर भी शिथिलाचार में फँसा, इसका भारी अनुताप किया। अपने पापों की आलोचना की। उनके आचार की विशुद्धि सुन छोड़कर गये शिष्यगण भी वापस आ मिले। __ अनेक वर्ष तक चारित्रधर्म की परिपालना कर सेलक राजर्षि मोक्ष में विराजमान हुए।
-ज्ञातासूत्र, ५
१००. दत्त वासुदेव विश्वविख्यात 'वाराणसी' नगरी के स्वामी का नाम था 'अग्निसिंह'। महाराज अग्निसिंह के जयंती और शेषवती नाम की दो रानियाँ थीं। जयंती ने चार स्वप्न देखकर सातवें बलदेव नन्दन को जन्म दिया। कुछ ही समय बाद महारानी शेषवती के उदर से सातवें वासुदेव 'दत्त' का जन्म हुआ। वासुदेव 'दत्त' का जीव प्रथम स्वर्ग से च्यवन करके आया था।