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जैन कथा कोष
गया। तब 'पोट्टिला' देव ने आकर पूछा- सचिव ! बोलो, अगर सामने गहरी खाई हो, पीछे हाथी का भय हो, दोनों ओर अंधकार हो, बीच में घनघोर वर्षा हो, गाँव में अग्नि लगी हुई हो तथा वन में दावानल धधक रहा हो तो ऐसे समय में बुद्धिमान को कहाँ जाना चाहिए?
तेलीपुत्र ने कहा- ऐसे समय भयभीत मनुष्य को संयम स्वीकार कर लेना चाहिए ।
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यह सुनकर देव अन्तर्धान होकर अपने स्थान पर चला गया। चिन्तन करते हुए तेतलीपुत्र को जातिस्मरणज्ञान हो गया । उसने अपना पूर्वभव देखा | पंचमुष्टि लुंचन कर पंच महाव्रत स्वीकार किये। चार घन घाति कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया ।
कनकध्वज को जब यह पता लगा, वह चिन्तातुर हो उठा। मुनि को वन्दन कर क्षमा-याचना करने लगा। मुनि ने राजा को प्रतिबोध दिया । अनेक वर्ष तक कैवल्य पर्याय का पालन कर तेतली प्रधान ने सिद्ध गति को प्राप्त किया।
-ज्ञातासूत्र १४
६७. त्रिपृष्ठ वासुदेव
'त्रिपृष्ठ' पोतनपुर के महाराज प्रजापति' के पुत्र थे। उनकी माता का नाम मृगावती था । त्रिपृष्ठ 'मरीचि' (आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का पौत्र और चक्रवर्ती भरत का पुत्र) का जीव था, जो अपने सत्ताईसवें भव में भगवान् महावीर के रूप में पैदा हुआ । त्रिपृष्ठ अपने प्रतिद्वन्द्वी 'अश्वग्रीव' नामक प्रतिवासुदेव को मारकर वासुदेव पद पर अभिषिक्त हुआ ।
वासुदेव त्रिपृष्ठ को संगीत अधिक प्रिय था । एक दिन राजसभा में एक नाटक का समायोजन था । सारी सभा विस्मित होकर नाटक देख रही थी । त्रिपृष्ठ ने अपने शय्यापालक से कहा- मेरी आँख लग जाए तो नाटक बन्द कर देना ।
यह कहकर वह शय्या पर लेट गया । त्रिपृष्ठ को झपकी आ गई। नाटक फिर भी चालू रहा। जब आँख खुली तब नाटक को चालू देखकर वासुदेव क्रोधित हो उठा। शय्यापालक पर बुरी तरह बरसता हुआ बोला- 'अच्छा, तेरे कानों को संगीत अधिक प्रिय है? ले. अब उसके मजे चख ले।' यों कहकर गरम-गरम सीसा उसके कानों में डलवा दिया। शय्यापालक बेचारा छटपटाकर