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१६६ जैन कथा कोष उपवन में घुसे। अन्दर घुसते ही मरे हुए साँप के कलेवर की दुर्गन्ध से भी अधिक घिनौनी दुर्गन्ध वहाँ आ रही थी। कुछ आगे बढ़े तो देखा, एक अर्धमृत व्यक्ति शूली पर लटक रहा था। पूछे जाने पर शूली पर लटके व्यक्ति ने आपबीती सुनाते हुए कहा तुम कहाँ फँस गये? मैं काकंदी का रहने वाला, घोड़ों का व्यापारी हूँ। लवणसमुद्र में जहाज के भंग हो जाने से यहाँ आ गया और इसके जाल में फंस गया। जब इसे तुम मिल गये तो मुझे शूली पर लटका दिया। दूसरा कोई नहीं आता तब तक ही तुम्हारे से प्रेम करती है। दूसरा कोई आते ही इस वधस्थान पर मारकर इस शूली पर तुम्हें लटका देगी।
उसकी बात सुनकर दोनों घबरा उठे। अपने बचाव का रास्ता पूछा, तब वह बोला—पूर्व दिशा के उपवन में सेलक यक्ष का आयतन है। वहाँ जाकर तुम लोग उसे स्तुति द्वारा प्रसन्न करो। वह शायद तुम लोगों की सुरक्षा कर सकता
___ वे दोनों सेलक के आयतन में आये। उसकी पूजा-अर्चना करके उसे प्रसन्न किया। वह घोड़े के रूप में प्रकट होकर बोला—'मेरी पीठ पर तुम दोनों बैठ जाओ। पर ध्यान रखना, वह दुष्टा पीछे आयेगी। तुम्हें फुसलाने को, अपने चंगुल में फंसाने को वह सभी तरह की पैंतरेबाजी करे । यदि मन से किंचित् भी उसके प्रति आकृष्ट हो गए तो मैं वहीं समुद्र में फेंक दूंगा। जो उसके प्रति निस्पृह रहेगा, उसे मैं अवश्य यथोचित स्थान पर पहुँचा दूंगा।' ____ दोनों उसकी पीठ पर चढ़ गये। सेलक पवन वेग से उड़ने लगा। पीछे से रत्नद्वीपा आयी। जब वे दोनों वहाँ नहीं मिले, तब अपने ज्ञानबल से सारा भेद पाकर उनकी ओर आयी और बहुत-बहुत दीनता दिखाने लगी। खुशामद करती हुई यहाँ तक कहने लगी—एक बार प्रेम-भरी नजर से मेरी ओर देख तो लो। जिनपाल तो बिल्कुल ही अविचल रहा, पर जिनरक्षित थोड़ा-सा मुग्ध हुआ और उसकी ओर झाँकने लगा। बस, फिर क्या था! सेलक ने उसे वहीं समुद्र में फेंक दिया। गिरते हुए जिनरक्षित को रत्नद्वीपा देवी ने हाथ में दबोच लिया। उसे फटकारते हुए आकाश में उछाला और शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके मार दिया।
'जिनपाल' अडिग रहा। सेलक ने उसे सकुशल लाकर 'चम्पापुर' में छोड़