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जैन कथा कोष १६७ दिया। उसने अपने माता-पिता से मिलकर सारी बात कही। बड़े भाई के वियोग का दिल में दु:ख था, पर करे क्या? कुछ समय के बाद उसने जिन-दीक्षा स्वीकार की और आगे मोक्ष को प्राप्त करेगा।
-ज्ञातासूत्र ६
६२. जीर्ण सेठ विशाला नगरी में रहने वाला एक ऋद्धिसम्पन्न, विवेकवान तथा साधु-संतों का भक्त जिनदत्त नाम का सेठ रहता था। कालान्तर में उसकी सम्पत्ति क्षीण हो । गयी तो लोग उसे जीर्ण सेठ कहने लगे। अब वह जीर्ण सेठ के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया।
भगवान् महावीर अपनी छद्मावस्था में एक बार विशाला नगरी में चातुर्मासार्थ रहे। जीर्ण बार-बार प्रभु के दर्शन करता और कहता—'प्रभुवर ! कभी मौका हो तो पारणे के दिन भिक्षा का लाभ देकर कृतार्थ करें।' प्रभु ध्यान में रहते, कोई उत्तर नहीं मिलता।
जीर्ण प्रतिदिन यही भावना भाता। यही प्रतीक्षा करता कि प्रभु भिक्षा के लिए सम्भवतः आज पधार जायें, आज तो अवश्य ही पधारेंगे।
यों करते-करते मृगसिर कृष्णा १ दिन आया । जीर्ण प्रतीक्षारत है। वह तीव्र भाव से प्रतीक्षा कर रहा है। प्रभु महावीर भी भिक्षार्थ नगर में पधारे । संयोगवश पूर्ण सेठ के यहाँ पहुँचे। 'पूर्ण' साधु-सन्तों का कोई खास भक्त नहीं था। अपने घर के प्रांगण में एक भिक्षुक को देखकर दासी से कहा—जा, घर में जो कुछ भी हो, इस भिखमंगे को दे दे।
सेठ के कहने से दासी अन्दर गयी। और कुछ तो मिला नहीं, सिर्फ उड़द के बाकुले पड़े थे। वे उसने इस अनूठे भिक्षुक को दे दिये। __ भगवान् ने आहार ग्रहण किया। सुपात्र-दान के योग से सहसा वहीं'अहोदानम्, अहोदानम्' की ध्वनि चारों ओर फूट पड़ी। पाँच दिव्यों की मूसलाधार वर्षा हुई। __ दुन्दुभि का नाद ज्योंही जीर्ण के कानों में पड़ा, सहसा चौंका | पता लगा, भगवान् ने पूर्ण सेठ के यहाँ आहार ग्रहण कर लिया है। अपने आपको कोसता हुआ मन-ही-मन सोचने लगा—'मेरे भाग्य ऐसे कहाँ जो अपने हाथों से भगवान् को भिक्षा दे सकूँ।' ...