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जैन कथा कोष १७१ सुखी और सफल जीवन व्यतीत कर रहा था।
एक दिन मध्यरात्रि में उसके चिन्तन ने मोड़ लिया। उसने सोचा–पूर्वजन्म में समाचरित शुभ कार्यों के साथ बँधने वाले पुण्यों की परिणतिस्वरूप बल, वैभव, सम्पत्ति आदि सबकुछ यहाँ मिले हैं। मेरे लिए यह समुचित होगा कि मैं इनमें आसक्त न होकर इस जन्म में और भी अधिक साधना करूँ। ___यों विचारकर अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर का सारा भार सौंपकर स्वयं तापसी दीक्षा स्वीकार कर ली। गेरुए वस्त्र, पैरों में खड़ाऊँ, हाथ में कमण्डल और केशलुंचन करके प्रणामा प्रव्रज्या स्वीकार की और वन की ओर चला गया। बेले-बेले की तपस्या, सूर्य के सम्मुख आतापना लेना आदि घोर तप प्रारम्भ किया, जिसमें कठिनतम कार्य यह किया कि पारणे के दिन पकाए हुए चावलों के अतिरिक्त कुछ नहीं लेना । उन चावलों को भी इक्कीस बार पानी में धोकर खाना। पके हुए चावलों को इक्कीस बार पानी में धोने के कारण बचना तो क्या था—नाममात्र का सत्त्व। फिर उसी आहार से काम चलाना ।
यों तामली तापस ने यह तप लम्बे समय तक चालू रखा । इस तप से शरीर अस्थि-कंकाल मात्र रह गया। जब उसे लगने लगा कि अब मेरा शरीर अधिक दिन नहीं टिक सकेगा, तब पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया।
उन दिनों उत्तर दिशा के असुरकुमारों की राजधानी बलिचंचा नगरी में कोई इन्द्र नहीं था। पहले वाला इन्द्र च्यवित हो गया था। वहाँ के देव तामली तापस को निदान कराके अपने यहाँ उत्पन्न होने को ललचाये । अतः विशाल रूप में वहाँ आये । हाव-भाव, भक्तियुत विविध नाटकों का प्रदर्शन किया और अपने यहाँ इन्द्ररूप में उत्पन्न होने के लिए निदान करने की भावभीनी प्रार्थना की। परन्तु तामली तापस उनकी प्रार्थना को सुनी-अनसुनी करके निष्काम तप में लीन रहा। देवगण निराश होकर अपने-अपने स्थान पर चले गये। इधर तामली तापस आठ हजार वर्ष की आयु को पूर्ण करके दूसरे स्वर्ग में इन्द्र के रूप में पैदा हुआ। ___ जब असुरकुमार देवों को यह पता लगा कि 'तामली' तापस यहाँ न आकर दूसरे स्वर्ग में पैदा हुआ है, तब कुपित हो उठे। 'तामली' के शव की भर्त्सना करने पर उतारू हो गये। रस्सी से उसके शव को बाँधकर नगरी में घसीटा, शरीर पर थूका । हमारी बात-न मानकर हठी बना हुआ अज्ञान तप से दूसरे स्वर्ग में गया, यों निन्दा करके चले गये।