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जैन कथा कोष १६३ के दिलों में भी साधुओं के प्रति भय बैठाते हुए यहाँ तक कह रखा था—इन साधुओं के पास कभी नहीं जाना चाहिए। ये अपनी झोली में चाकू-कैचियाँ रखते हैं और एकान्त में छोटे-छोटे बच्चों के प्राण लूट लेते हैं।
एक दिन ऐसा प्रसंग आया कि आत्मसाधक मुनिवर पथ से भटककर उस ओर आये, जहाँ पुरोहित रहता था। बच्चों ने दूर से देखा-घबराए। सोग न हो आज ये हमें मारने के लिए यहाँ आये हैं। दोनों भाई दौड़े। संयागवश मुनि भी उधर आने लगे। वे और भी अधिक घबरा गये और अपने प्राण बचाने हेतु एक वृक्ष पर चढ़ गये। मुनिवर भी चलते-चलते उसी वृक्ष के नीचे ठहरे । रजोहरण से भूमि का प्रमार्जन करके अपनी झोली वहाँ रखी। झोली खोलकर पात्र में से जो रूखी-सूखी रोटी थी, निकाल खाने लगे। ___ वृक्ष पर बैठे और पत्तों में छिपे दोनों भाई मुनियों की सारी गतिविधि देख रहे थे। मन में कुछ उथल-पुथल मची कि पिताजी ने हमें ऐसे क्यों बरगलाया। इनके पात्रों में कहाँ हैं छुरी और कैंचियाँ? यों चिन्तन करते-करते उन दोनों को जाति-स्मरण-ज्ञान हो गया। अपने पूर्वजन्म को देखा। नीचे आकर मुनि की पदवन्दना की। माता-पिता से आज्ञा लेकर साधु बनने के लिए उद्यत हो उठे।
माता-पिता ने उन्हें संसार में रखने के लिए बहुत-बहुत प्रयत्न किये, पर वे उन्हें संसार में रखने में असफल रहे। प्रत्युत कुमारों की विरक्ति से 'भृगु' पुरोहित भी अपनी पत्नी 'जसा' के साथ संयम लेने को तैयार हो गया। पुरोहित का धन लावारिस होने से राजभण्डार में जाने लगा। तब रानी कमलावती के समझाने से राजा और रानी भी संयम लेने को तैयार हो गये। ___यों छहों व्यक्ति राजा-रानी, पुरोहित और उसकी पत्नी तथा दोनों पुत्र संयमी बने। चारित्र की उत्कृष्ट आराधना करके मोक्ष में विराजमान हुए।
-उत्तराध्ययन, अध्ययन १४
६०. जितशत्रु राजा और सुबुद्धि मंत्री महाराजा 'जितशत्रु' 'चम्पानगरी' के अधिशास्ता थे। इनके प्रधान का नाम था सुबुद्धि । 'सुबुद्धि' बुद्धिमान था। महाराज का कृपापात्र, एक अच्छा तत्त्वज्ञ
और धर्मनिष्ठ व्यक्ति था। धर्मनिष्ठता तो उसकी इससे ही परिलक्षित होती थी कि वह हर परिस्थिति में अपने आपको सम रखना चाहता था। अनुकूलताप्रतिकूलता, अरस-विरस सामग्री उसकी मनोभावना को तनिक भी विचलित