________________
१६०
जैन कथा कोष
हो गया । चवालीस वर्ष तक कैवल्यावस्था में रहकर अस्सी वर्ष की अवस्था में मोक्ष पधारे। इस युग के ये अन्तिम केवली और अन्तिम मोक्षगामी थे । इनके मोक्ष - गमन के बाद भरतक्षेत्र में निम्न दस बातों का लोप हो गया – (१) मन:पर्यवज्ञान, (२) परमावधिज्ञान, (३) पुलाकलब्धि, (४) आहारक शरीर, (५) केवलज्ञान, (६) क्षायिक सम्यक्त्व, (७) जिनकल्प, (८) परिहारविशुद्धि चारित्र, (६) सूक्ष्मसंपराय चारित्र और (१०) यथाख्यात चारित्र ।
इनके पाट पर प्रभव स्वामी विराजमान हुए ।
- नंदी वृत्ति - त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, परिशिष्ट पर्व - वसुदेव हिंडी
- जम्बूकुमार चरियं
८६. जयघोष
'जयघोष' वाराणसी नगरी में रहने वाले एक कर्मकाण्डी ब्राह्मणप थे । वे जैनधर्म की विशेषताओं से प्रभावित होकर पंचमहाव्रतधारी मुनि बने ।
'जयघोष ' मुनि एक बार विहार करते हुए 'वाराणसी' नगरी में आये और नगर के बाहर मनोरम उद्यान में ठहरे। उसी नगरी में विजयघोष नाम का एक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। उसके यज्ञस्थल में 'जयघोष ' मुनि अपने एक मासी तप की समाप्ति पर भोजन के लिए पहुँचे ।
'जयघोष' मुनि को देखकर 'विजयघोष ' ब्राह्मण ने घृणा से घूरते हुए कहा— मुनिवर ! यह एक ब्राह्मण का घर है। यहाँ भिक्षा उसे ही मिल सकती है, जो यज्ञार्थी हो, वेदों का वेत्ता हो, ज्योतिष विद्या में निष्णात हो तथा संसारसमुद्र से औरों को तैराने में समर्थ हो। ऐसे के लिए ही यहाँ भोज्य सामग्री बनी है, तुम्हारे जैसे के लिए नहीं । इसलिए भिक्षार्थ कहीं अन्यत्र जाओ ।
'विजयघोष' की बात सुनकर 'जयघोष' मुनि शान्त रहे । उसका अज्ञान मिटाने के लिए 'विजयघोष' को यज्ञ, वेद, ब्राह्मण आदि का वास्तविक अर्थ बताया — जितेन्द्रिय, संयमवान्, सद्गुणों के धारक ही सच्चे ब्राह्मण हैं, न कि कषाय से कलुषित दिल वाले, दुर्गुणों के दलदल में धँसे व्यक्ति ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं। देखो ! सिर मुंडाने मात्र से कोई श्रमण, ॐकार कह देने मात्र से ब्राह्मण, वन में रहने मात्र से मुनि तथा भगवा वस्त्रों को धारण करने