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१४८ जैन कथा कोष मारा गया। 'ब्रह्मदत्त' सिंहासन पर बैठा। आयुधशाला में चक्र उत्पन्न होने के बाद चक्रवर्ती बन गया।
एक दिन नट-मण्डली ने आकर चक्रवर्ती के सामने नाटक किया। नाटक इतना भावपूर्ण और सजीव था कि चक्रवर्ती को उसे देखकर स्वर्ग में देखे नाटकों की स्मृति हो आयी। जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया। जब अपना पूर्वजन्म देखा तब चित्त मुनि के साथ अनुबन्धित कई भव देखे। उन्हें खोज निकालने के लिए एक आधा श्लोक बनाकर प्रसारित कर दिया। सबसे कहा गया कि जो इस श्लोक की पूर्ति सही-सही कर देगा, उसे चक्रवर्ती आधा राज्य
देगा।
आधे राज्य के प्रलोभन में मुँह-मुँह वही श्लोक सुनाई देने लगा—पर पूर्ति करे कौन? वह श्लोकार्ध यों था
आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगा वामरौ तथा......।' उधर चित्त मुनि को भी जातिस्मरणज्ञान हुआ। वे संयम ग्रहण करके मुनि बन गये। फिर अपने पूर्वजन्म के बन्धु को प्रतिबोधित करने की भावना से उसकी खोज करते हुए इसी 'कपिलपुर' के बगीचे में आकर ठहरे। उधर एक ग्वाला उस श्लोक के पद को गुनगुना रहा था। मुनि ने ज्योंही सुना, सहसा चौंके । अगला श्लोकार्ध बनाकर उस ग्वाले को सिखा दिया, वह यों था
एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः। ग्वाला राज्य-प्राप्ति के लोभ में वह पद याद करता हुआ चक्रवर्ती के पास आया। सहसा सारा पद सुना दिया। पद सुनकर चक्रवर्ती मूर्च्छित हो गया। सभासदों ने उस व्यक्ति को ही चक्रवर्ती के मूर्च्छित होने का कारण माना, अतः
१. दासा दसण्णे आसी मिया कालिंजरे नगे। हंसा मयंगतीरे य सोवागा कासिभूमिए। देवा य देवलोगम्मि, आसि अम्हे महिड्ढिया। दशार्ण देश में वास हुए, फिर कालिंजर पर्वत पर मृग बने, मृतगंगा नदी के तीर पर हंस, वहाँ से काशी में चाण्डाल-पुत्र और वहाँ से देवलोक में महर्द्धिक देव बने।
-उत्तराध्ययन १3/६ २. इमा नो छट्ठिया जाई, अन्नमन्नेण जा विणा। —यह हमारा आठवाँ जन्म है, हम एक-दूसरे से बिछुड़ गये हैं।
-उत्तराध्ययन १3/७