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जैन कथा कोष १२६
७२. चण्डकौशिक
एक बार गुरु-शिष्य दोनों एक गाँव से दूसरे गाँव को जा रहे थे। मार्ग में गुरुजी के पैर से एक मृत मेंढक के कलेवर का स्पर्श हो गया । शिष्य ने सचेत किया । " वह तो मरा हुआ ही था ” – गुरु ने शान्त स्वर में शिष्य से कहा ।
स्वस्थान पर आकर शिष्य ने फिर उस पाप का प्रायश्चित करने के लिए कहा। गुरुजी मौन रहे । शिष्य ने सोचा- यह मेरी ही गलती है, मुझे अभी न कहकर सांध्य प्रतिक्रमण के समय कहना चाहिए। प्रतिक्रमण के समय फिर कहा, तब गुरुजी गुस्से से आग-बबूला हो उठे। गुस्से में तमतमाते हुए बोलने लगे—मेंढक कहते-कहते मेरे पीछे ही पड़ गया । ले, मैं तुझे अभी बता दूँ कि मेंढक कैसे मरता है? यों कहकर शिष्य को मारने दौड़े। शिष्य तो इधर-उधर छिप गया, अँधेरा अधिक था, अतः एक स्तम्भ से टक्कर खाकर गुरुजी वहीं गिर पड़े। चोट गहरी आयी, तत्काल प्राण-पखेरू उड़ गए। मरकर चण्डकौशिक सर्प बने। सर्प भी इतने भयंकर थे जिसकी दाढ़ में उग्र जहर था । यह चण्डकौशिक वही है जिसने भगवान् महावीर के डंक लगाये थे और वहीं पर भगवान् के संबोधन से जातिस्मरणज्ञान करके अनशन स्वीकार कर लिया और मरकर देवयोनि में पैदा हुआ ।
- महावीर चरियं -आवश्यक कथा
- आवश्यक चूर्णि
- त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १० / १२
७३. चण्डप्रद्योत
'चण्डप्रद्योत' उज्जयिनी नगरी का एक प्रतापी राजा था। महाराज 'चेटक' की पुत्री 'शिवादेवी' इसकी पटरानी थी। बल, वैभव, ऐश्वर्य के साथ-साथ इसमें एक बहुत बड़ी अखरने वाली कमी थी कि यह रूप - लोलुप, विषयासक्त और पर-दारा-लम्पट था। जहाँ भी अच्छी चीज सुनता, उसे लेने लपकता पर लौटता प्रायः मुँह की खाकर । अधिक क्या, अपनी सगी साली 'मृगावती' को हथियाने के लिए 'कौशाम्बी' पर चढ़ आया। अकस्मात् आक्रमण का समाचार सुनकर महाराज 'शतानीक' भय से इतने संत्रस्त हो उठे कि उनका आकस्मिक निधन