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१३० जैन कथा कोष
हो गया। पीछे से महारानी 'मृगावती' ने अपनी सूझ-बूझ से काम लिया । इससे कहलाया कि आप मुझे दिल से चाहते हैं, यह मैं तब समझंगी जब उज्जयिनी के किले को तुड़वाकर उसकी ईंटों से 'कौशाम्बी' का किला सँवरवायेंगे ।
'प्रद्योत ' कामान्ध बना हुआ था । चिन्तन की चिंगारी बुझ चुकी थी । फिर देरी क्या थी? उज्जयिनी के किले की ईंटों से 'कौशाम्बी' का किला बनवा दिया गया। इस अन्तराल में मृगावती अपने शरीर को तप के द्वारा कृश करने लगी। संयोग की बात भगवान् महावीर कौशाम्बी पधार गये। 'मृगावती' मौका देखकर अपने पुत्र उदयन को चण्डप्रद्योत की गोदी में बिठाकर और उसकी सुरक्षा का भार उसे सौंपकर स्वयं प्रद्योत की आज्ञा प्राप्त करके साध्वी बन गई। प्रद्योत एक अबला का चातुर्य देखता ही रह गया ।
यों ही एक बार महाराजा श्रेणिक के सेचनक हाथी को हथियाने किसी भी प्रकार की बिना पूर्व सूचना के राजगृह पर चढ़ आया । ' श्रेणिक' नहीं चाहता था कि युद्ध करके निरर्थक जन-संहार किया जाय । पर युद्ध - विमुख भी कैसे हुआ जा सकता था ! 'अभयकुमार' ने बुद्धिमत्ता से काम लिया। 'प्रद्योत' के प्रमुख - प्रमुख सामन्तों के तम्बुओं के बाहर कुछ धन गड़वाकर 'प्रद्योत' के पास जाकर आत्मीयता दिखाकर सारा गुप्त भेद बता दिया । 'चण्डप्रद्योत' ने भी एक सामन्त के तम्बू के बाहर खुदवाकर देखा तो धन मिलना ही था। बस फिर क्या था— अभयकुमार की बातों को सत्य मानकर रात्रि के समय ही सभी को वहाँ छोड़कर उज्जयिनी भाग आया । प्रातः जब सामन्तों ने महाराज को वहाँ न देखा तब सबमें कुहराम मच गया। सारी सेना को लेकर सामन्त गण भी लौट आये। प्रद्योत से मिले। प्रद्योत ने उन्हें कटु उलाहना दिया। जब भेद खुला तो यह सारी 'अभयकुमार' की कुटिल चाल ही नजर आयी ।
राजा ने बहुत भारी अनुताप करके 'अभयकुमार' को पकड़ लाने का दायित्व मदन- मंजरी वेश्या को सौंपा। वह भी धर्मनिष्ठा श्राविका के छल से वहाँ पहुँची। अभयकुमार भी साधर्मिकता के जाल में फँस गया। उसके यहाँ भोजन करने चला गया। 'अभय' को बेहोश करके वेश्या ने 'उज्जयिनी' लाकर 'प्रद्योत' को सौंपा। 'प्रद्योत' का प्रसन्न होना स्वाभाविक था । 'अभय' ने स्पष्ट घोषणा करते हुए कहा- 'आपने मुझे कपट करके यहाँ मँगवाया है, पर मैं आपको बन्धन में जकड़कर जूतों की मार मारता हुआ 'उज्जयिनी' के बाजार में मध्याह्न के समय न ले जाऊँ तो मेरा नाम 'अभयकुमार' नहीं है।'