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१२६ जैन कथा कोष ___ मुनि के शान्त-प्रशान्त उपदेश से संयती राजा प्रबुद्ध हुआ । गर्दभाली मुनि के पास संयम स्वीकार किया। गर्दभाली मुनि भी चरित्र की उत्कृष्ट आराधना करके मोक्ष पधारे ।
__ -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन १८
७१. गोशालक 'राजगृही' नगरी के पास 'श्रवण' नाम का एक गाँव था। वहाँ एक 'मंखली' नाम का चित्रकार था। उसकी पत्नी का नाम 'सुभद्रा' था। मंखली जैसे-तैसे अपनी आजीविका चलाता था। 'सुभद्रा' गर्भवती थी। 'मंखली' अपनी गर्भवती पत्नी को साथ लिये एक गाँव में पहुँचा। वहाँ गोबहुल नाम के एक धनाढ्य के यहाँ गोशाला में पैदा होने से इसका नाम 'गोशालक' पड़ गया। यह भी बड़ा होकर हाथ में एक चित्रपट लेकर भिक्षा करके अपनी आजीविका चलाने लगा।
उधर भगवान महावीर' ने प्रव्रजित होकर अपना प्रथम चातुर्मास 'अस्थिग्राम' में बिताया। दूसरा चातुर्मास 'राजगृह' में एक बुनकर की शाला में बिता रहे थे। संयोगवश घूमता-घुमता 'गोशालक' भी वहीं आ गया। अपना सामान भी उसी शाला के एक कोने में रखकर वहीं ठहर गया।
प्रभु ने प्रथम मासोपवास का पारणा 'विजय सेठ' के यहाँ किया । सुपात्रदान के कारण विजय सेठ के यहाँ विपुल रत्नों की वर्षा हुई। सभी ने विजय सेठ के भाग्य की सराहना की। चारों ओर विजय सेठ की महिमा फैल गई।
गोशालक ने जब यह सारा चामत्कारिक वर्णन सुना तब मन में सोचामैं भी भगवान् महावीर का शिष्य बन जाऊँ तो निहाल हो जाऊँगा। इस प्रकार विचार कर 'महावीर' के पास आया और शिष्य बनने की प्रार्थना की। पर महावीर प्रभु मौन रहे । यों दूसरे महीने के पारणे के दिन, तीसरे महीने के पारणे के दिन भी शिष्य बनने की गोशालक ने प्रार्थना की; परन्तु प्रभु मौन रहे । चौथी बार स्वयं लुंचित होकर साधु के वेश में शिष्य बनने की प्रार्थना की, तब प्रभु ने इसे स्वीकार कर लिया। पर उसका बर्ताव सदा ही उच्छृखलतापूर्ण रहा। प्रभु की जहाँ-जहाँ महिमा होती, वह उसे सुन जल-भुनकर खाक हो जाता। फिर भी भगवान् महावीर से अनुभव प्राप्त करने के लिए साथ-साथ रहता था।