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जैन कथा कोष १०१ लेगी, नदी का प्रवाह मोड़ दिया। तभी से उस क्षुल्लक मुनि का नाम कूलबालुक (नदी-प्रवाह को मोड़ने वाला) प्रसिद्ध हो गया।
राजा श्रेणिक ने अपनी मृत्यु से पहले ही, जब वे सिंहासनासीन थे, एक पटरानी चेलणा के दोनों पुत्रों—हल्ल-विहल्ल को अठारहसरा हार तथा सेचनक हाथी दे दिया तथा कूणिक को मगध का साम्राज्य देने का निर्णय कर लिया। लेकिन कूणिक ने इन्तजार न किया और पिता श्रेणिक को बन्दीगृह में डालकर स्वयं मगध के सिंहासन पर बैठ गया। कूणिक की तृप्ति इतने बड़े साम्राज्य से भी नहीं हुई। अपनी पटरानी पद्मावती के भड़काने से उसने हल्लविहल्ल से अठारहसरा हार तथा सेचनक हाथी माँगा। उन दोनों ने ये वस्तुएं कूणिक को नहीं दी और इन दोनों वस्तुओं को लेकर अपने नाना चेटक के पास चले गए।
चेटक वैशाली गणराज्य के अधिपति थे। कूणिक ने अपना दूत चेटक राजा के पास भेजा, लेकिन चेटक ने न्याय का पक्ष लिया—न उन्होंने हल्लविहल्ल ही वापस भेजे और न अठारहसरा हार तथा सेचनक हाथी ही दिये।
इस बात पर रुष्ट होकर कूणिक ने वैशाली पर आक्रमण कर दिया और प्रतिज्ञा की कि मैं वैशाली में गधों से हल चलवा दूंगा।
राजा चेटक दृढ़ सम्यक्त्वी और द्वादशव्रती श्रावक थे। उनका यह अभिग्रह भी था कि वे रणक्षेत्र में एक दिन में केवल एक ही बाण छोड़ते थे, किंतु उनका बाण अमोघ होता था, निष्फल नहीं जाता था।
युद्ध के मैदान में चेटक राजा के अमोघ बाणों से दस दिन में कूणिक के दसों भाई मृत्यु की गोद में समा गये। तब कूणिक ने शकेन्द्र और चमरेन्द्र की आराधना की। उनके द्वारा दिये गये अमोघ दिव्य वस्त्र तथा कवच की सहायता से उसने संग्राम जीत लिया।
इतना होने पर भी वैशाली में 'गधों से हल चलवाने' की उसकी प्रतिज्ञा पूरी न हुई, क्योंकि वैशाली का प्राकार लाख प्रयत्न करने पर भी भंग न हो सका। वह अपने शिविर में इसी समस्या पर मंत्रियों के साथ विचार कर रहा था। तभी किसी मिथ्यादृष्टि व्यंतरी ने आकाश से कहा-'यदि मागधिका वेश्या कूलबालुक मुनि को वश में कर ले तो तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है, वैशाली का प्राकार भंग हो सकता है।'
कूणिक आधी सेना लेकर वापस अपनी राजधानी चम्पा को लौट आर्या