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१०४ जैन कथा कोष बारे में पूछा, तब भगवान् नेमिनाथ ने कहा-'श्रीकृष्ण ! मदिरा के योग से तुम्हारी यह द्वारिका नगरी देव के प्रकोप से अग्नि में जलेगी। तुम्हारी मृत्यु जराकुमार के हाथ से कौशाम्बी वन में होगी।' .
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने द्वारिका में घोषणा कराके कहा-'जिन्हें संयम लेना हो, वे ले लें। उनके पीछे की सारी व्यवस्था का भार मैं वहन करूँगा।' इस प्रकार उत्कृष्ट धर्म दलाली से तीर्थंकर गोत्र का बन्धन कर लिया।
आखिर में शाम्बकुमार के सताये जाने पर द्वैपायन ऋषि ने निदान करके प्राण त्यागे और मरकर अग्निकुमार देव हुआ। उसने यथासमय अग्नि की वर्षा की, जिससे सारी द्वारिका नगरी अग्निमय हो उठी। श्रीकृष्ण और बलभद्र ने वसुदेव और देवकी को बचाने का बहुत प्रयत्न किया। ज्योंही रथ में बैठकर बाहर निकालने लगे, त्योंही दरवाजे का पत्थर बीच में आ गिरा । ये दोनों बाहर ही रह गये। इनकी आँखों के सामने सारी द्वारिका जलकर खाक हो गई। छः महीनों तक नगरी सुलगती रही। पास में पानी का समुद्र भरा था, पर काम कुछ भी नहीं बना। ___श्रीकृष्ण चलते-चलते कौशाम्बी वन में आ पहुँचे। वहाँ उन्हें प्यास लगने से बलभद्र पानी लाने के लिए गये हुए थे। श्रीकृष्ण एक वृक्ष की छाया में लेटे हुए थे। इतने में जराकुमार वहाँ आ पहुँचा । दूर से हरिण के भ्रम में बाण छोड़ा। वह श्रीकृष्ण के पैर में आकर लगा। इस भयंकर वेदना से उन्होंने प्राणों का परित्याग किया। अगली चौबीसी में वे अगम नाम के बारहवें तीर्थंकर भगवान् होंगे।
पीछे से जब बलभद्र पानी लेकर आये, तब श्रीकृष्ण की यह अकल्पित अवस्था देखकर कुछ समय तक किंकर्तव्यविमूढ़ से बने रहे। श्रीकृष्ण के शरीर पर आँसू बहाते रहे। छः महीनों तक उनका शव कँधे पर लिये घूमते रहे । देव ने प्रतिबोध देने के लिए काफी यत्न किया। छः महीनों के बाद श्रीकृष्ण के शरीर की अन्त-क्रिया करके स्वयं संयमी बने । कठोर तपश्चर्या की। संयम और तप के प्रभाव से पाँचवें स्वर्ग में देव बने । वहाँ से निकलकर वे आने वाली चौबीसी में चौदहवें निष्पुलाक नाम के तीर्थंकर होंगे।
—आवश्यक चूर्णि -पाण्डव पुराण, पर्व २२
-हरिवंश पुराण, ६३