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जैन कथा कोष
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बुलाने आ गया। उसने कहा- 'आप दशपुर चलें, वहाँ आपकी प्रेरणा से बहुत मनुष्यों का उद्धार होगा।' इनके मन में भी दशपुर जाने की बात आ गई। गुरु वज्रस्वामी से आज्ञा माँगी तो उन्होंने अपने आयुष्य का विचार करके जान लिया कि थोड़ा ही बाकी है। यदि रक्षित दशपुर चला गया तो दशवें पूर्व का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेगा, क्योंकि इसके वापस लौटने से पहले ही मेरा आयुष्य पूरा हो जायेगा और दशवें पूर्व का शेष ज्ञान मेरे साथ ही विलुप्त हो जायेगा । यह सब सोचकर उन्होंने रक्षित से कहा- ' -'तुम घर मत जाओ, ज्ञान का अभ्यास करो।' आर्य रक्षित ने पूछा—'गुरुदेव ! दशवें पूर्व का ज्ञान कितना मैं प्राप्त कर चुका हूँ और कितना बाकी है?' वज्रस्वामी ने कहा- 'अभी तो तुम बिन्दु के बराबर ज्ञान प्राप्त कर सके हो, सिन्धु के बराबर शेष है; लेकिन चिन्ता मत करो। तुम मेधावी हो, शीघ्र ही दशवें पूर्व का शेष ज्ञान प्राप्त कर लोगे ।' इतना सुनने के बाद भी आर्यरक्षित बार-बार आग्रह करने लगे, तब आर्य वज्रस्वामी ने इन्हें दशपुर जाने की आज्ञा दे दी ।
आर्यरक्षित इसके बाद अपने भाई फल्गुरक्षित के साथ दशपुर चले गये । वहाँ इनके निमित्त से इनका सारा परिवार प्रतिबुद्ध हुआ, राजा ने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया। फल्गुरक्षित भी दीक्षित हो गये । उनके निमित्त से अन्य भी अनेक मनुष्यों का उद्धार हुआ ।
एक बार सौधर्म इन्द्र महाविदेहक्षेत्र में सीमंधर स्वामी की वंदना करने गया । उनके मुख से सूक्ष्म निगोद का स्वरूप सुनकर उसने पूछा- 'भगवन् ! भरतक्षेत्र में भी सूक्ष्म निगोद का स्वरूप जानने वाला कोई है ?' भगवान् सीमंधर स्वामी ने बताया- 'आर्यरक्षित है।' इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप रखकर इनसे (आर्यरक्षित से) सूक्ष्म निगोद का स्वरूप पूछा । इन्होंने यथातथ्य वर्णन कर दिया । इसपर इन्द्र संतुष्ट हुआ और इनकी वंदना करके देवलोक को चला गया।
इनके समय तक मनुष्यों की स्मरण शक्ति कम हो चली थी, अतः ज्ञान को सही ढंग से हृदयंगम करने के लिए इन्होंने चारों अनुयोगों को पृथक्-पृथक् कर दिया।
इनका जन्म वीर. नि. सं. ५२२ में हुआ । २२ वर्ष की अवस्था में प्रव्रजित हुए, ४० वर्ष तक मुनि रहे और १३ वर्ष तक आचार्य रहे । इस प्रकार ७५ वर्ष की आयु पूरी करके वीर. नि. सं. ५६७ में
स्वर्गवासी हुए ।
- उपदेश प्रासाद, भाग ५