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६८ जैन कथा कोष करके ही दातौन करता था। जब तेरहवां चक्रवर्ती बनने के लिए तमिस्रा गुफा के पास गया, तब वहाँ के संरक्षक देवों के टोकने पर भी नहीं मानो । ज्योंही उसने अपने कृत्रिम दण्डरत्न से गुफा के द्वारों पर प्रहार किया, सहसा अग्नि की ज्वाला निकली। उसी ज्वाला में कूणिक भस्म होकर छठी नरक में गया । प्रभु ने पहले ही इसे कहा था-'तू चक्रवर्ती नहीं है, इसलिए छठी नरक में जाएगा।' आखिर वही हुआ। -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग १२
-निरयावलिया १
५६. कूरगडुक मुनि 'अमरपुर' नगर के महाराज 'कुम्भ' के राजकुमार का नाम 'ललितांगकुमार' था। 'ललितांग' अपने नाम के अनुरूप ही सुकोमल और सुन्दर था। सारे परिवार का उस पर अत्यधिक प्यार था। __एक बार नगर में 'धर्मघोष' नाम के आचार्य पधारे। उनके उपदेश का कुमार पर अचूक असर हुआ। माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर वह संयमी बन गया और आचार्य के साथ विहार करने लगा।
ललितांग मुनि ने इन्द्रिय-विजय का एक स्वतन्त्र पथ अपनाया। वे भिक्षा में सरस आहार छोड़कर अग्नि संस्कारित 'कूर' नाम के नीरस धान्य लाते और मधु घृत के समान प्रसन्नतापूर्वक उसे खा लेते। ऐसा भोजन करने के कारण अन्य साधु उन्हें कूरगडुक अर्थात् 'कूर के कवल से पेट भरने वाले' कहने लगे। निकेवल–निराहार तपस्या उनके लिए असाध्य थी। . एक बार चातुर्मासिक चतुर्दशी के प्रसंग पर आचार्य देव ने सारे संघ को तप के लिए बलवती प्रेरणा दी। संघ के मानस पर आचार्यश्री की वाणी का अचूक असर हुआ। किसी ने चार मास का तप प्रारम्भ किया, किसी ने दो मास का किया, किसी ने मासिक तो किसी ने पाक्षिक । यों चारों ओर तप की गंगा ही बहने लगी। चतुर्दशी के उपवास तो सबके ही थे। आचार्यदेव भी व्याख्यान लम्बा किये जा रहे थे।
उधर 'कूरगडुक' मुनि पर बुरी बीत रही थी। वे कब से प्रतीक्षा में खड़े थे। कब व्याख्यान समाप्त हो और कब भिक्षा के लिए जाऊँ। व्याख्यान समाप्त