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६६ जैन कथा कोष दोहद इतना जघन्य और निंद्य था कि चेलणा किसी को बता भी न सकी । दोहद पूरा न होने से वह कृश होने लगी। शरीर की कृशता देखकर राजा ने सारा अन्तर्भेद जानना चाहा। रानी को शर्माते-सकुचाते हुए तथा दु:खी हृदय से अपनी सारी भावना बतानी पड़ी। अभय ने अपने बुद्धि-कौशल से ज्यों-त्यों यह सारी व्यवस्था जमाई। रानी की मनोभावना पूरी हुई। सवा नौ महीने बाद जब पुत्र का जन्म हुआ, तब रानी ने यों विचार कर उसे उकरड़ी पर फिंकवा दिया कि जो कुलांगार पेट में आते ही पिता के कलेजे का माँस खाने को ललचाया, उससे आगे जाकर क्या भला होना है? ___ संयोग की बात दासी ज्योंही नवजात शिशु को उकरड़ी पर फेंककर आयी उसे महाराज 'श्रेणिक' मिल गये । दासी को सारी बात सच-सच बतानी पड़ी। बात सुनकर राजा ने पितृ-प्रेम से अभिभूत होकर इसे उकरड़ी से उठाकर अपनी गोद में लिया पर बालक का क्रन्दन सुनकर देखा तो उसकी एक अंगुली किसी मुर्गे ने खा ली थी, उसमें से खून रिस रहा था। राजा ने उस रक्त-पीव को अपने मुँह से चूसकर निकाल फेंका। बच्चे को कुछ शान्ति मिली। राजा के उपचार से अंगुली ठीक तो हो गयी पर कुछ छोटी-अविकसित रह गयी, इसलिए इसका नाम कूणिक पड़ गया।
कूणिक बड़ा होने लगा और युवा होने पर आठ स्त्रियों के साथ उसका विवाह कर दिया गया। पटरानी का पुत्र होने के कारण वह युवराज था ही। इसके अतिरिक्त तब तक अभयकुमार दीक्षा भी ले चुका था। अतः कूणिक राज्यकार्य-संचालन का भी ध्यान रखने लगा।
एक दिन कूणिक के मन में आया-जब तक महाराज श्रेणिक जीवित रहेंगे, राजसिंहासन पर बैठे ही रहेंगे और तब तक मुझे राज्य करने का मौका मिलेगा नहीं। जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तब फिर राजा बनने में आनन्द ही क्या है। यों विचार करके कालिककुमार आदि दस भाइयों से साठ-गांठ करके उसने श्रेणिक को कैद में डाल दिया और स्वयं राजा बन बैठा। सारे साम्राज्य में आतंक छा गया। महाराज श्रेणिक से किसी का मिलना-जुलना भी बन्द कर दिया, यहाँ तक कि खाना-पीना भी बन्द कर दिया। चेलणा को इस संवाद से बहुत दुःख हुआ। परन्तु इस क्रूर को समझाये कौन? अन्त में हिम्मत करके स्वयं रानी चेलणा कूणिक के पास गई और अपने पति राजा श्रेणिक से मिलने की आज्ञा चाही। माता को मनाही कर सके, इतना साहस