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जैन कथा कोष
अपनी तपस्या का फल समझकर वह उस रत्न-पेटिका को रखने लगा। इतने में सिपाही आ गये। उन्होंने उसे पकड़ लिया और राजा के पास ले गये ।
राजा ने देखा कि महाबल के मुख पर तप का कुछ तेज है तो उसे उसके चोर होने का विश्वास न हुआ। पूछने पर महाबल ने अपना सम्पूर्ण परिचय बता दिया। नागकुमार देव द्वारा रानी और द्वारपाल की मृत्यु की घटना भी सुनाई
और यह भी कह दिया कि वटवृक्ष पर लटकने से मृत्यु होने के भय से मैंने तापसी दीक्षा ले ली थी।
राजा तो कर्मफल, भाग्य और होनी को मानता ही न था। उसने महाबल को यह आश्वासन देकर अपने पास रख लिया. कि मेरे रहते यमराज भी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता और कुछ दिन बाद उसका विवाह भी कर दिया।
एक बार राजा मानमर्दन ने वन-भ्रमण का विचार किया। महाबल भी उसके साथ जाने वाला था। उसने वस्त्राभूषण पहले और गले में सोने की जंजीर विशेष रूप से पहनी । जब राजा और महाबल दोनों घोड़े पर सवार होकर महल से निकले तो महाबल की स्त्री ने उसे किसी कार्य से लौटाया। पत्नी से बात करके महाबल पुनः चला, तब तक राजा काफी आगे निकल गया था। राजा के पास जल्दी पहुँचने के लिए महाबल ने अपने घोडे को दो-चार चाबुकें लगाईं। सरपट दौड़ता हुआ घोड़ा वटवृक्ष के नीचे आकर ऊपर की ओर जोर से उछला। उसके साथ ही महाबल भी उछला और उसके गले की सोने की जंजीर उलटकर वटवृक्ष की एक शाखा में उलझ गई। महाबल शाखा से लटका रह गया और घोड़ा आगे निकल गया । महाबल के सोने की जंजीर ही उसके लिए फांसी का फंदा बन गई। वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
जब राजा को महाबल की मृत्यु का समाचार मिला तो वह बहुत दु:खी हुआ। उसका मान गलित हो गया। वह समझ गया कि भाग्य, कर्मफल और
होनी अटल है। इनके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। • अब राजा मानमर्दन के हृदय में संवेग जागृत हो गया। वह चारित्र ग्रहण करने के लिए छटपटाने लगा। उसके भाग्य से नन्दनवन में दो जंघाचरण मुनियों का शुभागमन हुआ। राजा ने उनकी देशना सुनी। वह प्रतिबुद्ध हुआ और उसने श्रामणी-दीक्षा ले ली।