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६२ जैन कथा कोष
(२) दूसरे नाते से तुम मेरी भौजाई हो मैं तुम्हारी ननद हूँ, क्योंकि तुम मेरे सहोदर भाई कुबेरदत्त की पत्नी बनी हुई हो ।
(३) तीसरे नाते से तुम मेरी दादी हो, क्योंकि कुबेरदत्त मेरा पिता है ( तुम्हारा पति होने के कारण ) और तुम उसकी माता हो ।
(४) चौथे नाते से तुम मेरी सास हो, क्योंकि कुबेरदत्त तुम्हारा पुत्र है और मैं उसकी विवाहिता पत्नी हूँ ।
(५) पाँचवें नाते से मैं तुम्हारी सास हूँ, क्यों कुबेरदत्त मेरी सौत का पुत्र है और तुम उसकी पत्नी बनी हुई हो ।
(६) छठे नाते से तुम मेरी सौत हो, क्योंकि तुम्हारा और मेरा पति एक ही व्यक्ति कुबेरदत्त है।
नातों की इस विचित्रता को जानकर कुबेरदत्त और कुबेरसेना की आँखें खुल गईं। उन दोनों ने बड़ा पश्चाताप किया और साध्वीजी की प्रेरणा से आत्मकल्याण में प्रवृत्त हो गये। साध्वी कुबेरदत्ता भी गुरुणीजी के पास लौट आयी। आलोचना और प्रायश्चित लेकर शुद्ध हुई और तपस्या में लीन हो गई ।
- जम्बूकुमार चरियं
५४. कुलपुत्र महाबल
श्रीपुर नगर में महाप्रतापी राजा राज्य करता था । उसका नाम मानमर्दन था। वह कर्मफल और भाग्य पर कम और अपनी शक्ति तथा पुरुषार्थ पर अधिक भरोसा रखता था ।
उसी नगर में महाबल नाम का एक कुलपुत्र रहता था । उसके माता-पिता बचपन में ही मर गये थे। वह उन्मुक्त वातावरण में ही बड़ा हुआ था इसलिए वह शरीर से तो बलिष्ठ था, लेकिन धर्म-अधर्म का विवेक उसको नहीं था । माता-पिता के न रहने के कारण वह सातों व्यसनों में लिप्त हो गया। लेकिन उसमें चोरी का दुर्गुण प्रमुख रूप से था ।
एक बार वह चोरी करने के लिए एक व्यापारी के घर में घुसा । खुली खिड़की से झाँककर उसने देखा तो व्यापारी अपने पुत्र से दो पैसे के लिए लड़ रहा था | कुलपुत्र महाबल ने सोचा- इस व्यापारी के घर चोरी करना ठीक नहीं है; जब दो पैसे के लिए ही पुत्र से लड़ रहा है तो चोरी होने पर यह मर भी सकता है।