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जैन कथा कोष ५७
३७. उग्रसेन कंस' के पिता महाराज 'उग्रसेन' 'भोजकवृष्णि' राजा के पुत्र थे। वैसे 'अन्धकवृष्णि' और 'भोजकवृष्णि' दोनों भाई थे। 'अन्धकवृष्णि' के दस पुत्रों में सबसे बड़ा 'समुद्रविजय' तथा सबसे छोटे 'वसुदेव' थे। समुद्रविजय के पुत्र श्री 'नेमिनाथ' तथा वसुदेव के पुत्र श्री कृष्ण-बलभद्र' थे। 'भोजकवृष्णि' का पुत्र था 'उग्रसेन'। उनकी महारानी का नाम था 'धारणी'। ये मथुरा के शासक थे और समुद्रविजय शौरीपुर नगर के शासक थे।
एक बार महाराज उग्रसेन ने एक तपस्वी को अपने यहाँ व्रत खोलने की प्रार्थना की, पर समय पर उसे आहार देना भूल गये। वह तपस्वी मासव्रतधारी था, अर्थात् एक दिन ही आहार लेता था और फिर महीने-भर तक निराहार तपस्या करता था। यदि किसी कारणवश उस दिन उसे आहार नहीं मिलता तो भूखा ही अगले महीने का उपवास ग्रहण कर लेता। यों दो-तीन बार राजा प्रार्थना करता गया और समय पर भूलता गया। ___ अन्तिम बार जब अनुताप करता हुआ प्रार्थना करने राजा गया, तब तापस कुपित हो उठा। भूख से बेहाल बना निदान कर लिया कि यदि मेरे तप का कुछ फल है तो मैं तुम्हें दुःख देने वाला बनूँ। ___ तापस वहाँ से मृत्युंगत होकर उग्रसेन की महारानी धारणी के गर्भ में आया । गर्भयोग से रानी के मन में अशुभ-अशुभ संकल्प उभरने लगे। यहाँ तक कि राजा के कलेजे का माँस खाने को भी रानी का दिल मचल उठा। मंत्री ने अपनी प्रतिभा-कौशल से जैसे-तैसे रानी की मनोभावना पूरी की। यथासमय पुत्र पैदा हुआ, पर महारानी ने सोचा जो गर्भ में आते ही पिता के कलेजे का माँस खाने को ललचाया ऐसे कुलांगार से मेरा और इसके पिता का क्या भला होना है? यह तो अपने पिता को दुःख देने वाला ही बनेगा, इसलिए इसे अभी से दूर कर देना चाहिए, जिससे यह अपने पिता को कष्ट न दे सके। यों विचारकर उसे कांसी की पेटी में डालकर यमुना नदी में बहा दिया। पुत्र की मृत्यु हो गई—यह समाचार सब जगह फैला दिया।
उधर यह पेटी तैरती हुई शौरीपुर नगर में 'सुभद्र' सेठ के हाथ लगी। खोलकर देखा तो नवजात शिशु मिला। अपना पुत्र मानकर अपनी पत्नी से उसका लालन-पालन करने को कहा। कांसी की पेटी में निकला था इसलिए