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जैन कथा कोष
तापस उधर आ निकले। वे रानी को अपने आश्रम में ले गये। आश्रम में रहकर रानी अपने पुत्र का पालन-पोषण करने लगी।
इधर चाण्डालिनियों ने शंख राजा को रानी कलावती के कंगन सहित कटे हुए हाथ दिये। उन कंगनों पर जयसेन नाम पढ़कर राजा को अपनी भूल मालूम हुई। वह पछताने लगा, बहुत दुखी हुआ। उसने खोजी घुड़सवार दौड़ाये। रानी कलावती का पता चल गया। राजा स्वयं जाकर उसे तापस आश्रम से ले आया। राजा उसके शीलधर्म से बहुत प्रभावित हुआ। दोनों फिर सुख से रहने लगे।
एक बार शंखपुर में एक ज्ञानी मुनि आये। राजा शंख और रानी कलावती उनके दर्शनार्थ गये। रानी ने जिज्ञासा प्रकट की—'गुरुदेव ! निरपराधिनी होते हुए भी मेरे हाथ क्यों काटे गये? इसका क्या कारण है?' __गुरुदेव ने बताया—'पिछले जन्म में तुम महेन्द्रपुर के राजा नर-विक्रम की पुत्री सुलोचना थीं। राजा नर-विक्रम को भेंट में एक तोता मिला । तुम उसे बड़े प्रेम से पालने लगीं। एक बार तुम उस तोते को साथ लेकर मुनि-दर्शन के लिए गईं। मुनि के दर्शन करते ही तोते को जाति-स्मरण-ज्ञान हो गया। वह जान गया कि 'मैं पिछले जन्म में मुनि था, लेकिन परिग्रह की उपाधि के कारण मैंने संयम की विराधना कर दी, इसलिए तोता बना हूँ।' ऐसा जानते ही उसने नियम बना लिया कि 'मैं भगवान, मुनि अथवा त्यागीजनों के दर्शन-वंदन के बाद ही आहार ग्रहण किया करूँगा।'
दर्शनों के लिए अब तोता पिंजरे से निकलकर उड़ जाता। एक बार वह कई दिनों तक वापस नहीं आया। सुलोचना को यह बहुत बुरा लगा। जब तोता वापस आया तो उसने उसके पंख काट दिये ताकि वह उड़ ही न सके।
मुनिराज ने बताया—उस तोते का जीव ही शंख राजा बना है, और पंख कटवाने के कारण ही तुम्हारे भी हाथ काटे गये। __यह घटना जानकर राजा शंख और रानी कलावती प्रतिबुद्ध हो गये तथा आगे ग्यारहवें भव में मुक्त हो गये।
-पुहवीचन्द चरियं
४६. कयवन्ना शाह (कृतपुण्य) राजगृह का श्रेष्ठी धनदत्त अपार लक्ष्मी का स्वामी था। उसकी पत्नी का नाम था-वसुमती। सेठ-सेठानी को सभी सुख थे लेकिन संतान का अभाव उनका