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जैन कथा कोष ८५ अधीन बन गया। तब से अब तक शकेन्द्र महाराज जब तीर्थंकरों के कल्याणोत्सवों में आते हैं, तब ऐरावत हाथी पर सवार होकर आते हैं।
-भगवती सूत्र वृत्ति १८/२
-ऋषिमंडल प्रकरण वृत्ति, पत्र ४६
५०. कुंडकौलिक श्रमणोपासक 'कुंडकौलिक', 'कम्पिलपुर' में रहने वाला एक धनाढ्य गाथापति था। उसके। पास अठारह कोटि स्वर्णमुद्राएं, कृषि, व्यापार तथा सरंक्षण में थीं तथा दस-दस । हजार गौओं वाले छः गोकुल थे। उसकी धर्मपत्नी का नाम था पूषा । ___भगवान् महावीर का जब 'कम्पिलपुर' में पधारना हुआ तब कुंडकौलिक ने प्रभु के पास श्रावक धर्म स्वीकार किया। श्रावकधर्म की स्वीकृति से उसकी जीवनधारा ही बदल गई। भोगोपभोगों की आसक्ति को उसने बिल्कुल ही कम कर लिया। वह शान्त और निराकुल जीवन जीने लगा। वह केवल जिन प्रवचनों में श्रद्धालु ही नहीं था, अपितु अच्छे तर्कपटु और वाक्पटु व्यक्तियों में उसकी गणना होने लगी।
एक दिन कुंडकौलिक अपनी अशोकवाटिका में बैठा धर्म-चिन्तन में लीन था। अपनी नामांकित मुद्रिका तथा उत्तरीय पट उतारकर पास में रख छोड़ा था। इतने में एक देव वहाँ आया और उस मुद्रिका और पट को उठाकर बोला"कुंडकौलिक ! तुम जो यह त्याग-तप आदि की साधना कर रहे हो, यह व्यर्थ है। भगवान् महावीर ने जो कहा है सब कार्य प्रयत्न करने से बनते हैं, यह निपट भ्रान्ति है। इस अर्थ में गोशालक का कहना ठीक है। उसका कहना है—जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा, प्रयत्न की कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए वह धर्म स्वीकार करो।"
कुंडकौलिक ने देव की असत्य बात का प्रतिकार करना अपना नैतिक कर्तव्य समझा। अत: बोला-'देवानुप्रिय ! आपने जो यह दिव्य ऋद्धि प्राप्त की है, वह आपको प्रयत्न करने से मिली है या अपने आप ही बिना प्रयत्न के मिल गई?'
देवता क्या बोलता, पहले झटके में ही मौन था । यदि नियतिवश मानता है तो पाषाणों, वृक्षों को क्यों नहीं मिली? यदि प्रयत्नजन्य मानता है तो अपनी बात अपने आप झूठी होती है। .